________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
[१०२ 1
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[गकारादि
इसे ४ माशेकी मात्रानुसार धी और शहदके | सप्तगुजं ददीतास्य यावत्स्यादेकविंशतिः । साथ सेवन करनेसे जरा मृत्युका नाश होता है। प्रत्यहं तु हरीतक्य गुञ्जा देयकविंशतिः ॥ छायामें शुष्क समूल भांगरेका चूर्ण और त्रिफला सक्षीरं सघतं चान्नं भोजयीत सशर्करम् । चूर्ण १-१ भाग और मिश्री २ भाग लेकर एकत्र निर्वाते चावतिष्ठेत कम्पस्पर्शापनुत्तये ॥२८ मिलाकर लीजिए।
गन्धाश्मगर्भसंज्ञोयं योगिभिः परिकीर्तितः ॥ उपरोक्त गन्धामृत रस खानेके पश्चात् १ पल (कूर्म पुटद्वारा शुद्ध) गन्धक ८ भाग और (५ तोले) यह चूर्ण खानेसे ज्वर नष्ट होता है । पारा १ भाग लेकर दोनोंको मन्दाग्नि पर पकाइये, (१५४९) गन्धाश्मगर्भरसः
जब गन्धक पिघल जाय तो उतार लीजिए और (र. र. स. । उ. ख. अ. २१) ठण्डा होनेपर पुनः पकाइये, इसी प्रकार जब तक गन्धं रसेनाष्टगुणं विमर्य
गन्धकका रंग न बदल जाय बारबार पकाते रहिए। कृशानुतोयेन विपाचयेत ।
तत्पश्चात् घोटकर सुरक्षित रखिए । मृद्वमिना लोहमयेऽथ पात्रे
इसे ७ रत्तीकी मात्रासे आरम्भ करके २१ विषेण पश्चादथ सिद्धमेति ॥२१॥ रत्ती पर्यन्त २१ रत्ती हरके चूर्ण (और घृत) के गन्धाश्मगर्भो हि रसोऽस्य सर्व साथ सेवन करानेसे कम्पवात तथा स्पर्शवातका स्पर्शप्रणुत्यै भज वल्लयुग्मम् । नाश होता है। सक्षीरमन्नं सघृतञ्च भोज्यं
इस गन्धाश्मरसका आविष्कार योगियोंद्वारा वयं च सर्व परिवर्जनीयम् ॥२२॥ हुवा है। इसके सेवन कालमें, दूध, घृत और
८ भाग गन्धक और १ भाग पारदकी शर्करा (खांड) युक्त आहार करना और निर्वात कजली करके उसे मन्दाग्नि पर लोहपात्रमें चीतेके स्थानमें रहना चाहिए। . काथके साथ पकाइये, तत्पश्चात् उसमें १ भाग (प्र. वि-पहिले दिन ७ रत्ती औषध खिशुद्ध मीठा तेलिया मिलाकर धोटिए।
लाएं और फिर प्रतिदिन १-१ रती बढ़ाते जांय, इसे प्रतिदिन ४ रत्तीकी मात्रानुसार सेबन २१ रत्ती मात्रा तक पहुंच जाने पर प्रतिदिन करने और दूधभात खाने तथा अपथ्य पदार्थोंका १-१ रत्ती मात्रा घटाकर सेवन कराएं और ७ रत्ती परित्याग करनेसे स्पर्शवात रोग नष्ट होता है। तक आ जायं. यदि इसके पश्चात् भी औषध (१५५०) गन्धाश्म गर्भरसः
सेवनकी आवश्यकता पड़े तो फिर इसी क्रमसे (र. र. स.। उ, खं. अ. २१) ।
बढ़ाते हुवे सेवन कराएं। गन्धकाष्टकभागेन रसं दखाऽथ पाचयेत् ॥२४ (१५५१) गन्धाश्मपर्पटीरसः (र.का.धे.।प्र.) मद्वग्निना शीतमुभावुत्तार्योत्तार्य यनतः । भृङ्गराजरसे चैव लोहपात्रेऽमिना बलिम् । यावद्गन्धकरूपस्य पूर्वस्य ह्यन्यथा भवेत् ॥२५ द्रावयित्वा विनिक्षिप्य पूरयित्वा च भाजने ॥
For Private And Personal