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गुटिकाप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
[२५७]
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(२०२६) ज्वरनाशिनी गुटिका चार गुने पानीमें पकाइये; जब चौथा भाग शेष
(र. स. क. । उला. ५) | रह जाय तो उतार कर छान लीजिए। इस काथको एल्वालुकामयाबोलमिन्द्रागुग्गुलुसंयुता। पुनः पकाकर गाढ़ा कर लीजिए । जब अवलेह स्नुहीक्षीरेण गुटिका शोधनी ज्वरनाशिनी ॥ तैयार हो जाय ( करछलीको चिपकने लगे ) तो - एलवा, हरे, बोल (बीजाबोल मुरमुकीगोंद), उतार कर ठण्डा कर लीजिए । इसमें शहद मिलाइन्द्रायणकी जड़ और गूगल समान भाग लेकर कर चाटनेसे भयङ्कर अतिसार भी नष्ट हो जाता है। चूर्ण करके सबको स्नुही ( थोहर-सेंड )के दूधमें यह अवलेह आमातिसार, और पानी तथा एकत्र खरल करके (चनेके बराबर) गोलियां बना | | राध ( पीप )के समान एवं मुरदेकी सी गन्धवाले लीजिए।
अतिसारमें भी तुरन्त लाभ पहुंचाता है । इनके सेवनसे विरेचन होकर ज्वर नष्ट
(मात्रा १ तोला ) हो जाता है।
(२०२८) जातिपत्रादिलेहः (मात्रा-१-२ गोली । अनुपान ठण्डा पानी।)
(ग. नि. । मुख.; रा. मा. । मुख.) ।। इति जकारादिगुटिकाप्रकरणम् ॥
जातीपत्रं' कणा लाजा मातुलुङ्गदलं मधु ।
एला लेहे भवेन्नादःकिन्नरस्वरतोऽधिकः ॥ अथ जकाराद्यवलेहप्रकरणम् जावित्री, पीपल, धानकी खील, बिजौरे (२०२७) जम्बूत्वचाद्योऽवलेहः नीबूके पत्ते और इलायची समान भाग लेकर
( हा. सं. । स्था. ३, अ. ३) पीसकर शहदमें मिलाकर चाटनेसे स्वर अत्यन्त जम्बूत्वचं वत्सकवल्कलञ्च
मधुर हो जाता है। निकाथ्य नूनं सलिले समीरणम्। (२०२९) जातीरसावलेहः चतुर्विभागेश्वपि शेषितेषु
( वृ. नि. र. । तृष्णा; वृं. मा. । छर्दि.) उत्तार्य वस्त्रेष्वथ गालयेच ॥ जात्या रसाकपित्थस्य पिप्पलीमरिचान्वितः। पुनःकटाहे विपचेच्च सम्यक
क्षौद्रेण युक्तःशमयेल्लेहोयं छर्दिमुल्वणाम् ।। ___ दर्वीप्रलेपः स्वरसन्तु यावत् ।
चमेलीके पत्ते और कैथका स्वरस और पीपल उत्तार्य शीते मधुना विमिश्रं तथा मरिचका चूर्ण एवं शहदको एकत्र मिलाकर
लीढं हरेदप्यतिसारमुग्रम् ॥ चाटनेसे छर्दि नष्ट होती है। आम सपित्तं कुणपं जलाभं पूयसन्निभम्।। (२०३०) जीरकखण्डः (यो. चि.। अ.७) नाशयेत्पीतमात्रेण तमःसूर्योदये तथा ॥ जीरकं भागमेकं स्यात्खण्डस्तद्विगुणस्मृतः।
जामन और कुड़ेकी छाल समान भाग लेकर चतुर्गुणं घृतं तप्तं सर्व सम्मील्य मुद्रयेत् ॥ १ बृहन्निघन्टुरत्नाकरमें जातीपत्रके स्थानमें जातीफल पाठ है !
भा० ३३
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