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भारत-भैषज्य रत्नाकरः ।
इसे दही में मिलाकर खिलाया जाय तो | (१९९४) जरणादिचूर्णम् आमातीसार और रक्तातिसारमें आश्चर्यजनक लाभ होता है । (१९९२) जयापत्रयोगः
( वृ. नि.; यो. र. । अजी ० ) जरणरुचकशुण्ठीपिप्पलीतीक्ष्ण वेल्लम् । सलवणमजमोदाहिङ्गुपध्येति कर्षम् ॥ पृथगथ पलमात्रा स्यात्रिवृच्चूर्णमेषाम् । जननमुदरवह्नेः पाचनं रोचनश्च ॥
(वृ. नि. र. यो. र. । मुख.; वृ. यो. त. । त. १२८) जरणलवणपथ्याशाल्मलीकण्टकानाम् अनुदिनमनुघृष्टं दन्तमूलेषु चूर्णम् । व्रणदरणरुगस्रस्रावचाञ्चल्यशोथानपनयति विवस्वानन्धकारानिवाशु ||
( ग. नि. भा. प्र. । म. खं. नासा. ) पुटपकं - जयापत्रं सिन्धुतैलसमन्वितम् । प्रतिश्यायेषु सर्वेषु शीलितं परमौषधम् ॥
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के घाव,
“भांगके पत्तोंको पुटपाक विधिसे पकाकर ' 'चूर्ण करके उसमें सेंधा नमक और तेल मिलाकर खाने से समस्त प्रकारके प्रतिश्याय ( जुकाम ) नष्ट होते हैं । यह प्रतिश्यायको परमौषध है । (१९९३) जरणादिचूर्णम्
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जीरा, सेंधानमक, हर्र और सेंभलके कांटे दिन (मञ्जनकी भांति) मसूढों पर मलनेसे मसूढ़ों समान भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए। इसे प्रति दर्द, रक्तस्राव, सूजन, और दांतोका हिलना शीघ्र बन्द हो जाता है। (१९९५) जातीपत्रादिचूर्णम् ( यो. र. र. र.; । मुख.; यो. चि. म.; नि. । चूर्ण. यो. त. । त. ६९; वृ. यो त । त. १२८ ) जातीपत्र पुनर्नवागजंकणाकोरण्टकुष्ठवचाः शुण्ठीदीप्य हरीतकीतिलसमं श्लक्ष्णं भृशं चूर्णयेत् । तच्चूर्ण वदने धृतं विजयते दौर्गन्ध्यं दन्तव्यथाम्; चाञ्चल्यत्वमतिव्रणश्वयथुरुक्कण्डूकमिव्यापदः ॥
ग.
ज़ीरा, कालानमक, सोंठ, पीपल, स्याह मिर्च, बायबिड़ङ्ग, सेंधानमक, अजमोद, हींग और हर्र एक एक कर्ष ( १ | तोला ) और निसोत १ पल (५ तोले) लेकर चूर्ण बना लीजिए ।
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इसके सेवन से रुचि और अग्निकी वृद्धि महीन चूर्ण कर लीजिए ।
होती है ।
(मात्रा १ - १ || माशा | अनुपान - उष्णजल )
[जकारादि
चमेली के पत्ते, पुनर्नवा ( बिसखपरा - साठी ) की जड़, गजपीपल, पियाबासा, कूठ, बच, सोंठ, अजवायन, हर और तिल समान भाग लेकर खूब
इस चूर्णको मुखमें रखने से ( दांतो पर मलने से ) दुर्गन्धि, दांतोंकी पीड़ा, दांतोंका हिलना, मसूढ़ोंकी
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१ भांग के गीले पत्तोंकों पीसकर बड़ या पीपल के पत्तों में लपेटकर डोरेसे बांधकर उसपर १ अंगुल मोटा मिट्टीका लेप करके आग में दबा दीजिए । जब मिट्टीका रंग लाल हो जाय तो ठण्डा करके भांगको निकाल लीजिए । २ तिलकणेति पाठभेदः । ३ पुष्पमिति पाठान्तरम् ।