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रसप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः ।
[ २३१]
__ शुद्ध पारा, वैक्रान्त भस्म, रौप्य भस्म. ताम्र आध्मानगुल्मौ च विवन्धशूले भस्म, लोह भस्म, मोती भस्म, शुद्ध गन्धक, और
तूनीप्रतून्यौ विलयं प्रयान्ति ॥ स्वर्ण भस्म समान भाग लेकर प्रथम पारे और
शुद्र पारा १ भाग, और गन्धक २ भाग गन्धककी कजली बनाइये, फिर अन्य औषधे
लेकर कजली बनाकर उसे पिया बांसा ( काला मिलाकर अद्रकके स्वरस, भांगरेके रस, चीतेके |
| बांसा )के रस, नीबूके स्वरस, और इमलीके खारके काथ तथा गाय और बकरीके दूधकी ३-३ पानी में एक एक दिन घोटकर गोला बना कर सुखाकर भावनाएं दीजिए।
उसे तांबेके सम्पुट में बन्द करके उसके ऊपर कपर पार्वती निर्मित इस चिन्तामणि रसको १ | मिट्टी करके अच्छी तरह सुखा लीजिए, और उसे रत्तीकी मात्रानुसार शहद और पीपलके चूर्णके साथ लवण यन्त्रमें ( ३ पहर तक ) पकाइये, पश्चात् सेवन करनेसे बवासीर, क्षय, खांसी, अरुचि, जीर्ण- सम्पुटके स्वांग शीतल हो जाने पर उसमेंसे ज्वर, पाण्डु, प्रमेह, विषमज्वर और वायुका नाश | औषधको निकालकर उसमें पारेसे चौथाई गन्धक होता है।
और शुद्ध मीठा तेलिया मिलाकर ज़रा देर मन्दाग्नि (१९३३) चिन्तामणिरसः (१०) पर पकाइये । और फिर ( एक दिन ) चीतेके (र. र. स. । उ. खं. अ. १८)
काथमें घोटिए। मूतेन गन्धं द्विगुणं विमर्य
___इसे १ वल्ल (२-३ रत्ती )की मात्रानुसार कोरण्टनिम्बूत्थरसैदिनं तत् ।
| अरण्डीके तेल और शहद में मिलाकर सेवन करनेसे चिचोद्भवक्षाररसेन चैक
गुल्म, तूनी, प्रतितूनी, और आध्मान रोगका नाश
होता है। दिनञ्च गोलं रविसम्पुटस्थम् ॥
___अपथ्य---खट्टे पदार्थ, तेल और ठण्डी चीजें। लिप्त्वा मृदा शुष्कमतीव कृत्वा
सामुद्रयन्त्रेण पुटं ददीत । (१९३४) चिन्तामणिरसः (११) (र.चं.।ज्व.) उद्धृत्य शीतं रसपादभागं
रसभागो भवेदेको गन्धञ्च द्विगुणं भवेत् । प्रक्षिप्य गन्धं विपचेन्मनाक च ॥ | टङ्कणस्य त्रयो भागाःशृङ्गवेरं चतुर्गुणम् ।। विषं च दत्वा रसपादभागं
मरीचं पञ्चभागश्च षड्भागा च हरीतकी । लोहस्य पात्रेऽथ कृशानुतोयैः । जैपालं सप्तभागं स्यात् सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ।। रसस्तु चिन्तामणिरेष उक्तो
भृङ्गराजरसेनैव खल्वे निक्षिप्य मर्दयेत् । वातारितैलेन समाक्षिकेण ॥ चणप्रमाणा वटिका गुडेन सह भक्षयेत् ॥ वल्लेन मानं प्रददीत चाम्लं
उष्णं सेकादिकं कुर्यादुष्णं वारिपिबेन्मुहुः। सैलं च शीतं परिवर्जयेञ्च । | आमान्तं रेचनं कुर्यादजीर्णज्वरनाशनम् ॥ .
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