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रसप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
[४५७ ]
करके सुखा कर और उसे चूल्हेपर चढ़ाकर २४ घण्टे (२६६६) तालमन्त्रेश्वरो रसः पकाइये । तत्पश्चात् हाण्डीके स्वांगशीतल होनेपर
( र. का. धे. । कुष्टा.) उसमेंसे हरतालभस्मको निकाल लीजिये । इसका | रंग शुद्ध कर्पूरके समान सफेद होगा ।
सितामध्वाज्यगोक्षीरैस्तालकं मर्दयेदिनम् ।
तद्गोलं काजिकैः पश्चादोलायन्त्रेण पाचयेत्।। इसे ३ रत्तीकी मात्रानुसार यथोचित अनु
3 मद्य सेहुण्डदुग्धेन चन्द्रिकाक्षपणाऽवधिम् । पानके साथ सेवन करानेसे वातरक्त, कुष्ठ, दाह,
तच्छुष्कं मर्दयेत्तावद्यावत्स्यात्कृष्णवर्णकम् ॥ विस्फोटक, अपची (गण्डमालाभेद), विचर्चिका,
व्योषं हयारिमूलञ्च प्रत्येकं दशमांशतः। चर्मदल, रक्तपित्त, शोथ, गलित्कुष्ट, हलीमक, शूल,
सर्व तद्वाकुचीतैले दिनं खल्वे विमर्दयेत् ॥ अग्निमांद्य और अरुचिका नाश होता है ।
तालमन्त्रेश्वरो नाम द्विगुञ्जो मण्डलान्तकृत् । (२६६५) तालभस्मविधिः
| वाकुची देवकाष्ठश्च पातालाऽगरुटङ्कणम् ॥ (र. र. स. । पू. खं. अ. ३)
| लेह्यमेरण्डतैलेन त्रिनिष्कमनुपानकम् ॥ मधुतुल्ये घनीभूते कषाये ब्रह्ममूलजे।
शुद्ध हरतालको १-१ दिन मिश्रीके पानी, त्रिवारं तालकं भाव्यं पिष्ट्वा मूत्रेऽथ माहिषे ॥ शहद, घी और गायके दूधमें घोटकर गोला बनाइये उपलैर्दशभिर्देयं पुटं रुध्वाऽथ पेषयेत् ।
और उसे सुखाकर चार तह किये हुवे कपड़ेमें एवं द्वादशधा पाच्यं शुद्धं योगेषु योजयेत् ॥*
बांधकर १ दिन दोलायन्त्रविधिसे काजीमें पकाइये । ढाककी जड़की छालके काथको शहदके तत्पश्चात् उसे सेहुण्ड ( सेंड-थोहर )के दूधमें समान गाढ़ा करके उससे ३ बार हरतालको भावना इतना घोटिये कि उसकी चमक जाती रहे, इसके दीजिए, तत्पश्चात् ३ बार भैसके मूत्रमें घोटकर पश्चात् उसे सुखाकर इतनी देर और घोटिये टिकिया बनाकर सुखाकर शरावसम्पुटमें बन्द कि वह काला हो जाय । अब उसमें त्रिकुटा करके दश बन उपलों (अरने उपलों )की अग्निमें और कनेरकी जड़का महीन चूर्ण प्रत्येक उसका फूंक दीजिये । इसी प्रकार १२ पुट देनेसे उत्तम दसवां भाग मिलाकर १ दिन बावचीके तैलमें हरतालभस्म बन जाती है।
घोटकर २-२ रत्तीकी गोलियां बना कर रखिये। * तालभस्म परीक्षा
तालं मृतं तदा ज्ञेयं वह्रिस्थं धूम्रवर्जितम् । सधूमं न मृतं प्राहुर्वृद्धवैद्या इति स्थिति ॥
(आ. वे. प्र. । अ. ५) हरताल भस्मको अग्निपर डालनेसे धूम्र निकले तो कच्ची और धूम्र न निकले तो मृत समझनी चाहिये ।
भा० ५८
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