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[४५८]
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[तकारादि
इनमेंसे प्रतिदिन १-१ गोली खाकर ऊपरसे पथ्यं च चणकस्योक्तं षष्टिकाकोद्रवौदनम् । बाबची, देवद्वार, पातालगरुडी अगर और सुहागेकी एकविंशदिनं यावल्लवणाम्लो विवर्जयेत् ॥ खीलका समान भाग मिश्रित १ तोला चूर्ण अरण्डीके अष्टादशानि कुष्ठानि वातरक्तं तथोद्धतम् । तैलमें मिलाकर चाटनेसे मण्डलकुष्ठ नष्ट होता है। फिरङ्गदेशजं रोगं दुस्तरं च व्यपोहति ॥ तालमारणम्
___ हरतालके बारीक बारीक टुकड़े करके उन्हें (यो. र. । प्र. भा.; वृ. यो. त.। त. ४१; भा. प्र.।
चार तह किये हुवे कपड़ेमें बांधकर दोलायन्त्र पूर्व. खे.; आ.वे. प्र.। अ. ५;र. रा. सु. । हरिता.प्र.)
विधिसे १ पहर जम्बीरी नीबूके रसमें पकाएं । तालकेश्वर रस सं. २६४५ देखिये ।
| तत्पश्चात् उसमें उसका दसवां भाग सुहागेके
बारीक टुकड़े मिलाकर उक्त विधिसे २-२ पहर (२६६७) तालमारणम्
चूनेके पानी, काजी, पेठे ( कुहड़े ) के रस, तैल ( वै. रह. । कुष्ठ.; यो. त. । त. ६२ ) और त्रिफलाके काथमें दीपकी शिखाके समान जम्बीरद्रवमध्ये तु प्रक्षाल्य नटमण्डनम्। अग्निपर स्वेदित करें । दशांशं टङ्कणं दत्त्वा खण्डशः परिमेलयेत् ॥ ___अब उसे काञ्जीगे पोर डाककी छालके चतुर्गुणे गाढपटे निबध्य प्रहरद्वयम् । स्वरस या काथमें घोटकर गोला बनाकर धूपमें दोलायन्त्रेण संस्वेद्य प्रदीपप्रमितेऽनले ॥ सुखाएं और उसे शरावसम्पुटमें बन्द करके गजचूर्णतोये काञ्जिके च कूष्माडाम्बुनि तैलके। पुटमें फूंक दें । पुटके स्वाङ्गशीतल होनेपर त्रिफलाम्बुनि तत्पश्चात् क्षालयित्वाम्लवारिभिः। उसमेंसे हरतालको निकालकर उसे बकरीके दूधमें ततः पलाशत्वग्वारिपिष्टं घर्मे प्रशोषयेत् । घोटकर गोला बनाकर सुखा लें और कपरमिट्टी की तं गोलकं शरावाभ्यां सम्पुटीकृत्य यत्नतः ॥ हुई एक मजबूत हाण्डीमें ढाक (पलाश )की खाते गजाख्ये पक्त्वा तु स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत्। ४ सेर राख खूब दाब दाबकर भरकर उसपर अजादुग्धैः पुनः पिष्ट्वा शोषयेद्गोलकीकृतम् ॥ पावसेर पत्थरका चूना दबा दबाकर बिछाकर उसके आढकं भस्म पालाशं हण्डिकायां दृढं क्षिपेत् ।। ऊपर उपरोक्त गोला रखकर उसपर पुनः पावसेर सम्यक चूर्णस्य कुडवं दत्त्वा सम्यग्विचक्षणः ॥ चूना और उसके ऊपर ४ सेर ढाककी राख दाब स्थापयेद्गोलकं तत्र पुनश्चूण च भस्म च । दाबकर भर दीजिये । अब हाण्डीके मुखपर शराव यथा धूमो बहिर्याति न तथा मुद्रयेच्च ताम् ॥ । ढककर उसके जोड़को गुड़चूने आदिसे इस प्रकार द्वात्रिंशत्पहरान्वहिं भक्तवद्दापयेत्तथा। बन्द कर दीजिये कि जिससे धुवां न निकल सके स्वागशीतं समुद्धत्य सञ्चर्य नटमण्डनम् ॥ ' और ऊपरसे ३-४ कपरौटी करके मुखाकर ३२ हिमं कुन्दप्रभाकाशं निधूमं कृष्णवर्त्मनि। पहर तक भात पकानेके समान अग्नि दीजिये । रक्तिकास्य प्रदातव्या पुराणगुड्योगतः॥ ! इसके पश्चात् हाण्डीके स्वांगशीतल होनेपर उसमेंसे
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