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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नस्यप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [७९ ] - - - (१४७२) ग्रहोपशमनार्थमञ्चनम् (रा.मा.अप.) मूलको शहदमें मिलाकर उसकी नस्य लेनेसे गण्डकूष्माण्डीफलसलिलेन पुष्यसंज्ञे माला नष्ट हो जाती है। नक्षत्रे महणतरां प्रपिष्य दावीम् ।। (१४७५) गण्डमालाहरनस्यम् कर्तव्यं नयनयुगेऽञ्जनं प्रशस्तं (वृ. यो. त. । त. १०८) निश्शेषग्रहरजनीचरोपशान्त्यै ॥ गण्डमालाभयानां नस्पकर्मणि योजयेत् । दारुहल्दीको पुष्य नक्षत्रमें कुष्माण्डीफल | निर्गुण्ड्यास्तु शिफां सम्यग्वारिणा परिपेषिताम्।। (क्षुद्र कुष्माण्ड-छोटा पेठा) के स्वरसमें महीन पीस- निष्पीड्य तद्रसान्नस्य गण्डमालापचीहरम् ॥ कर दोनों आंखोंमें आंजनेसे समस्त ग्रह और राक्षस निर्गुण्डी (संभालु) की जड़को पानीमें पीसकर शान्त होते हैं। रस निकाल कर नस्य लेनेसे गण्डमाला और अपची (१४७३) ग्रहोपशमनार्थमञ्चनम् रोग नष्ट होता है। (रा. मा. अपस्मारोन्मादाधिकारः ) (१४७६) गान्धार्यादिघृतनस्यम् गोपित्तसिन्धुभवमागधिकाप्रमत (वृ. नि. र. । शिरो.) चूर्णैः कृतं समरिचैर्नयनाञ्जनं यत् । गान्धारी च जटामांसी घृतेन सह पाचयेत् । भूतग्रहशमनं तदुदाहरन्ति तदाज्यं नस्यमात्रेण निहन्त्यर्धशिरोरुजम् ॥ संत्रासनञ्च रजनीचरसंहतानाम् ॥ कोली और जटामांसी (बालछड़) के कल्क गोरोचन, सेंधानमक, पीपल और मरिच और चतुर्गुण जलसे सिद्ध घृतकी नस्य लेनेसे आधे (स्याह मिर्च) के चूर्णको आंखोंमें आंजनेसे भृत, शिरकी पीड़ा (आधासीसी) शान्त होती है । ग्रह और राक्षसोंका भय नष्ट होता है। (१४७७) गिरिकर्णिकानस्यम् इत्यजनप्रकरणम् - (यो. र., वृ. नि. र. । शिरो.) गिरिकीफलं मूलं सजलं नस्यमाचरेत् । . अथ गकरादिनस्यप्रकरणम् मूलं वा बन्धयेत्कणे निहन्त्यर्धशिरोरुजम् ।। (१४७४) गण्डमालाहरनस्यम् इन्द्रायनकी जड़ या फलको पानीमें पीस कर (वृ. यो. त. । त. १०८) नस्य लेनेसे अथवा उसकी जड़को कानमें बांधनेसे कोशातकीनां स्वरसेन न | अर्धशीर्ष (आधासीसी-आधे शिरका दर्द ) नष्ट होता है। तुम्ब्यास्तु वा पिप्पलिसंयुतेन । (१४७८) गिरिकर्णीमूलयोगः (रा.मा.।उन्मा.) तैलेन वारिष्टभवेन कुर्यात् संपिष्य तन्दुलजलेन सिताद्रिकर्णी . ___ वचोपकुल्ये सह माक्षिकेण ॥ मूलं घतेन सह नस्पविधौ प्रयुक्तम् । ___ कड़वी तोरीके स्वरस अथवा पिप्पली चूर्णयुक्त __ भूतग्रहोपशमनं, मुनिवृक्षपुष्पतूंबीके रस या नीमके तैल अथवा बच और दन्ती जातो रसः समरिचश्च तथैव दृष्टः॥ For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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