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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ११९] - - खरल करके कैथके रसमें धोटिए और फिर उसे वातोत्तरायां मरिचाज्ययुक्तः हरिनके सींगमें भरकर उसके ऊपर कपर मिट्टी पित्तोतरायां मधुपिप्पलीभिः ॥ करके मध्य पुटमें फूंक दीजिए और स्वांग शीतल कफोत्तरायां विजयारसेन होनेपर कपर मिट्टीको अलग करके (सींग समेत) __ कटुत्रयेणाज्ययुतो ग्रहण्याम् । पीस लीजिए । तत्पश्चात् उसे खरैटीके रसकी ७ क्षये ज्वरे चार्शसि षट्प्रकारे भावना, और चिरचिटा, लोध, अतीस, मोथा, | - भगन्दरे चारुचिपीनसे च ।। धायके फूल, इन्द्रजौ और गिलोयके काथकी ३- मेहे च कृच्छ्रे गतधातुवर्धने ३ भावना देकर चूर्ण करके रख लीजिए। गुज्जाद्वयश्चास्य महामयन्नम् ।। ___ यह " ग्रहणी कपाट " रस अग्निदीपक और मोती, सोना, पारा, गन्धक, सुहागा, अभ्रक सर्व प्रकारके अतिसार तथा संग्रहणी रोगनाशक है। भस्म, और कौली १-१ भाग और शंख ७ भाग नोट-सं. १५९३ और इसमें बहुत थोड़ा अन्तर | लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिए है । दोनो योग लगभग समानही हैं। तत्पश्चात् अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर और मात्रा----१ माशा । अनुपान शहद (२ ! अतीसके कामें धोटकर गोला बना लीजिए, फिर तो० ) और मिर्चका 'चूर्ण ( १ माषा ) उसे सम्पुटमें बन्द करके ( वालुकायन्त्रमें ) ___व्यवहार-१-१ माशा औषध ३ बार खानी आधे दिनकी अग्नि दीजिए। स्वांग शीतल होनेपर चाहिए। औषधको निकालकर लोहपात्रमें डालकर एक एक (१५९८) (संग्रह) ग्रहणीकपाटरसः(वृहद)। भावना धतूरा, चीता और मूसलीके रसकी दीजिए। र. सा. सं.; र. रा. सुं.; र. चं.; भै. र. । ग्रह.; बस ग्रहणीकपाटरस तैयार है। र. मं. । अ. ६) इसे वातप्रधान ग्रहणीमें मिर्चके चूर्ण और घोके साथ, पित्तज ग्रहणीमें शहद और पीपलके मुक्तासुवर्ण रसगन्धटङ्क-- चूर्णके साथ तथा कफज संग्रहणीमें भांगके रस, ____मकपर्दी रसतुल्यभागः। त्रिकुटेके चूर्ण और धीके साथ सेवन कराना चाहिए.। सर्वैस्समं शकचूर्णमिष्टं इसके सेवनसे क्षय, ज्वर, ६ प्रकारकी बवाखल्ले च भाव्योऽतिविषाद्रवेण ॥ सीर, भगन्दर, अरुचि, पीनस, प्रमेह, मूत्रकृच्छू, गोलश्च कृत्वा मृदुकर्पटस्थं और धातुक्षयादि रोगोंका नाश होता है। ___ सम्पाच्य भाण्डे दिवसाधकञ्च । मात्रा--२ रत्ती। सर्वाङ्गशीते रस एष भाव्यो (१५९९) ग्रहणीकपाटो रसः धुस्तूरवनिमुषलीद्रवैश्च ॥ (र. रा. सु.; र. चं. । ग्रह.) लौहस्य पात्रे परिभावितश्च श्वेतसर्जस्थ शुद्धस्य गन्धकस्य रसस्य च । सिद्धो भवेत्स ग्रहणीकपाटः। | शुभेऽह्नि पृथगादाय चूर्ण माषचतुष्टयम् ॥ For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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