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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४२८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [तकारादि करना और शहदका सेवन करना चाहिए । दही (२५९९) ताम्रशुद्धिः ( रसायनसार ) खट्टा न होने पर सेवन करना चाहिए । तात्कालिक नैपालताम्रमिति यत्सुप्रसिद्धतानं पुष्टिकी चिन्ता न करनी चाहिए । पत्राणि तस्य सुलघूनि हि कारयित्वा । विन्ध्याचलवासी धर्मपालनिर्मित इस ताम्रके दोषाष्टकं किल तदीयमपानुनुत्सुसेवनसे अत्यन्त बढ़ा हुवा कफ, खांसी और श्वास आताग्निसाद्भवनभाञ्जि कृतानि तानि ॥१॥ नष्ट होता है। निर्वापयेच्च शनकैः परिसप्तकृत्वः (२५९८) ताम्रविकारशान्तिः (रसायनसार) प्रत्येकशोधनकवस्तुनि वक्ष्यमाणे । तैलञ्च तक्रमथ गव्यमपीह मूत्रं श्यामकाऽनं सितायुक्तं सितायुक्तं च धान्यकम् । काजी कुलत्थभवमम्बु तथाम्लिकायाः ॥२॥ • पीतं दिनत्रयं दोषान् दुष्टताम्रभवाञ्जयेत् ॥१॥ नैम्बूकमम्बु च रसश्च कुमारिकायाः । अर्थ-जिस मनुष्यने---- स्यात्सूरणस्य च पयोऽपि गवां ततोन्ते । " न विषं विषमित्याहुस्ताम्रन्तु विषमुच्यते। स्यानारिकेलजलमप्यथ माक्षिकश्चा. एको दोषो विषे सम्यक् ताने त्वष्टौ प्रकीर्तिताः" प्येतेषु शुद्धिकरणेषु रवेमितेषु ॥३॥ मूरणस्वरस आप्यते न इस वचन पर ध्यान नहीं देकर अपनी चेद्यत्र कुत्रच न तत्र तत्पुटे । बेशहूरीसे ताम्रका पूर्ण शोधन नहीं करके भस्म ताम्रपत्रगणमानिधाय वै बना डाली हो तो उसके सेवन करनेसे कुष्ठ, जड़ता, त्रिः पुटम्परिपचेत्तु शुद्धये ॥ फोड़े आदि अनेक व्याधियाँ शरीरमें उत्पन्न हो जाती हैं; उनको नष्ट करनेके लिए तीन दिनतक नारिकेलजलमाप्यते न चे मिश्रीके साथ सांवा अन्नका पतला भात बनाकर द्यत्र कुत्रच न तत्र तद्भवे । पिया करे और जब प्यास लगे तब धनियेके । तैल एव विनिमज्जयेत् त्रिधा पानीमें मिश्री डालकर पिया करे । इसके अतिरिक्त ध्मातमग्निमयपत्रसञ्चयम् ॥ दूसरा खानपान कुछ सेवन नहीं करे । ऐसा । सर्वेषांधातूनां संशुद्धिः शास्त्रतो विनिर्दिष्टा। करनेसे सर्व विकार शान्त हो जायगे और चन्द्रो- गुणभूमार्थं भिषजा सम्पाद्यैदयको सेवन करनेसे भी दो तीन दिनमें सर्व। . वेति हि प्रसिद्धमिदम् ॥ विकार शान्त हो जाते हैं । यह मैंने अपनेही किन्त्वल्पशुद्धियोगेऽप्यन्ये . शरीर पर आजमा लिया है; और दृषित तात्र न तथा वहन्त्यनर्थास्तु । · भस्मकी शुद्धि बीस बार गोमूत्रमें बुझानेसे जो एकन्तानं शुद्धावल्पोहोती है उसको मैं अन्यत्र लिख चुका हूँ । (र. सा.) नम्भ्रान्तिवान्तिकृत्तु यथा ॥ For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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