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रसप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
[८५]
तदनु सलिलजातैर्वासकैर्गोस्तनिभिर् । । सोनामक्खी भस्म, शुद्र मीठा तेलिया, चीता, मर्दितमनु विदारीवारिणा घस्रमेकम् ॥ बंसलोचन, काकड़ासिंगी, संभालुके पत्ते गन्धक, घृतमधुसहितेयं निष्कमात्रा वटीति । मुलैठी, सेंधानमक, मुहागेकी खील, यवक्षार, क्षपयति गुरुवातं पित्तरोगं क्षयश्च ।। बांझ ककोड़े की जड़, पृष्टपर्णी, नीमछाल, इन्द्राभ्रममदकफशोषान्दाह तृष्णासमुत्थान् । यनकी जड़, अद्रख और अम्लवेत १-१ शाण मलयजमिह पेयञ्चानुपेयं सचन्द्रम् ॥ (४-४ माशे) लेकर चूर्ण योग्य ओषधियोंका __ अभ्रक भस्म, शुद्ध पारा, ताम्र भस्म, मुण्ड कपड़छन महीन चूर्ण कर लीजिए । तत्पश्चात् पारे लोहभस्म, तीक्ष्ण लोहभस्म, सोनामक्खी भस्म, और गन्धककी कजली करके उसे पर्पटीकी भांति और गन्धक (शुद्ध ) समान भाग लेकर पारे और पका लीजिए और किर समस्त ओषधियोंको एकत्र गन्धककी कजली करके समस्त औषधीको एकत्र घोटकर (पानीसे ) छोटे बेरके समान गोलियां . मिला लीजिए। तत्पश्चात् १-१ दिन मुलैठी, बना कर छायामें सुखा लीजिए । बासा, मुनक्का और बिदारी कन्दके क्वाथ में धोटकर इलके सेवनसे समस्त प्रकारके सन्निपात और ४-४ माशेकी गोलियां बना लीजिए। कुष्ठ रोग नष्ट होते हैं।
इसे धी (६ माशे) और शहद (२ तोला) (१४९६) गगनायस-रसायनम् में मिलाकर चाट कर पश्चात् श्वेतचन्दन और
(र. चिं. । स्तब. ८) कपूरको धिस कर पीनेसे प्रबल वायु, पितरोग, | कृत्वा धान्याभ्रक श्लक्ष्णं मुस्ताकाथेन मर्दयेत्। क्षय, भ्रम, मद, कफ, शोरोग, दाह और तृष्णा दिनैकमातपे तप्तं पूपं कृत्वा ततः परम् ॥ नष्ट होती है।
शरावसम्पुटे क्षिप्त्वा देयश्चोपरि खर्परः । (१४९५) गगनाद्यो रसः (रसें. मं. । अ. ३) वस्त्रमृत्तिकया लेप्य पुटं दद्यात्ततः परम् ॥
गगनकनकतानं शाणमात्रं च धृत्वा । स्वाङ्गशीतलतां याते तच्चूर्ण पेषयेत्पुनः । रसवरकृतपिष्ट्या सौरभान्ते विपक्खा॥ । मुस्तानीरेण च क्षुण्णं पूपं कुर्यात्पुनः पुनः ॥ समयुतकृतमेभिस्तालकं वोलतापं । एकविंशतिवारांश्च दद्यायुक्त्या नया पुटम् । विषमनलसुपः शृङ्गिका सिन्दुवारम् ॥ बार बारश्च संचूर्ण्य शरावस्थं तदभ्रकम् ॥ सुरभिमधुकसिन्धुष्टङ्कणक्षारवन्ध्या । एवं हि पुटितं व्योम भवेनिश्चिन्द्रिकं परम् । कलशिपिचुविशालाशृङ्गवेराम्लवेतम् ॥ एकं कान्तायसं सिद्धमेतनिश्चन्द्रमभ्रकम् ॥ लघुवदरफलाभा छायया शोषिता हि । समं क्षिप्याथ खल्वे तवयं पिष्वैकतां नयेत् । हरति सकलजातं सन्निपातं च कुष्ठम् ॥ रसायनं द्वयोर्योगानिष्पन्नं गगनायसम् ।।
अभ्रक भस्म, सुवर्ण भस्म, ताम्र भस्म, | प्रातरुत्थाय गवाणो ग्राह्यः शीतजलान्वितः । शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, हरताल भम्म, बीजाबोल; | अष्टादशसु मेहेषु वातश्लेष्मादि रोगिषु ।
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