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द्वितीयो भागः ।
गुटिकाप्रकरणम्
युक्त दूध अथवा जिस रोगमें सेवन करनी हो उसको नष्ट करनेवाला कोई काथ ।
। कुष्ट. )
चन्द्रप्रभावी (र. का. रस प्रकरण में देखिए | चन्द्रप्रभावटी (र.रा. सु. र. सा. सं. इत्यादि) रस प्रकरण में देखिए । (१७४०) चपलमण्डूरम्
(ग. नि., च. द.; र. का. घे. । शूला. ) लोहकिट्टपलान्यष्टौ गोमूत्रे ऽष्टगुणे पचेत् । चपला नागरक्षारपिप्पलीमूलचित्रकम् ॥ संचूर्ण्य निक्षिपेत्तस्मिन् पलांशं सान्द्रतां गते । गुटिकां कल्पयेत्तेन पक्तिशूलनिवारिणीम् ॥ आठ पल लोहक ( मण्डूर ) को ८ गुने गोमूत्र में पकाइये और गाढ़ा हो जाने पर उसमें १ - १ पल पीपल, सोंठ, जवाखार, पोपलामूल और चीतेका चूर्ण मिला दीजिए और गोलियां बनाकर रख लीजिए ।
इनके सेवन से पक्ति शूल ( परिणाम शूल ) होता है ।
( मात्रा १ माशेसे ३ माशे तक ) ।
१ चविकेति पाठान्तरम्
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नोट, चन्द्रप्रभा शब्दसे प्रायः वैद्य | चिञ्श्चाक्षारं स्तुहीक्षारमर्कक्षारं पलं पलम् । कचूर ' ही ग्रहण करते हैं परन्तु मेरी सम्मति में द्विपलं शङ्खजं भस्म रामठञ्च पलार्धकम् ॥ कपूर लेना अधिक उत्तम है लवणानि च सर्वाणि पलमात्राणि योजयेत् । चन्द्रप्रभावटिका ( र. र. स. उ.खं.अ.२० ) क्षारद्वयं पलार्धञ्च सर्वमेकत्र योजयेत् ॥ जम्बीरकरसैर्मर्यमनलस्य दिनत्रयम् । भृङ्गराजस्य निर्गुण्डचा मुण्ड्याश्चैव पृथक् द्रवैः ।। आर्द्रकस्य रसेनैव प्रत्येकं दिनमर्दितम् । दरीबीजमात्रांस्तु वटिकान्कारयेद्भिषक् ॥ एकैकं भक्षयेत्प्रातः पञ्चगुल्मान्व्यपोहति ।
रसप्रकरण में देखिए
शूलं निहन्त्याशु जीर्ण च विषूचिकाम् ॥ मन्दाग्निं नाशयेच्छीघ्रं पथ्यं तैलाम्लवर्जितम् । चिञ्चाशङ्खवटी नाम ग्रहणी रोगहृत्परा ॥
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(१७४१) चिञ्चाक्षारादिशङ्खवटी
( यो. र.; गुल्म; वृ. नि. र. )
इमलीका खार, स्नुही ( सेहंड - थोहर ) का क्षार और अर्कचार १ - १ पल, शंख भस्म २ पल, हींग आधा पल, पांचो नमक (सेंधा, काला नमक, समन्द्र नमक, भद्दी नमक, काच नमक ) १-१ पल, यवक्षार और सज्जीखार आधा आधा पल | लेकर सबको एकत्र करके ३ - ३ दिन तक जम्बरी नीबू के रस और चीतेके काथमें तथा १ - १ दिन भांगरा, संभालु, मुण्डी और अद्रकके रसमें पृथक् पृथक् घोटकर बेरकी गुठली के बराबर ( १ ॥ मारोकी ) गोलियां बना लीजिए ।
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यह ' चिञ्चाशंखवटी ' पांच प्रकारके गुल्म, हर प्रकारका शूल, अजीर्ण, विसूचिका, और अग्निSairat नाश करती है ।