________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
द्वितीयो भागः ।
रसप्रकरणम् ]
घृतकुमारी ( ग्वारपाठा ) की मोटी और कृमि इत्यादिसे रहित जड़ लेकर एक तरफसे जरासी काटकर उसके भीतर गढ़ा करें और उसमें शुद्ध वर्कीहरतालकी डली रखकर उसके मुखपर धीकुमारकी जड़का वही कटा हुवा टुकड़ा लगाकर उसपर ३-४ कपरौटी कर दीजिये । तत्पश्चात् एक कपर मिट्टी की हुई हाण्डीमें इसे ( ढाक की राख के बीच में ) रखकर हाण्डीके मुखको शरावसे ढककर सन्धिको गुड़ चूने आदिसे बन्द कर दीजिये और उसे चूल्हे पर चढ़ाकर उसके नीचे ९ दिन अग्नि लगाइये । तत्पश्चात् हाण्डीके स्वांग शीतल होने पर उसमेंसे हरतालको निकालकर उसमें उससे आधी पारद भस्म ( अभाव में रससिन्दूर ) मिलाकर ( घीकुमारके रस में घोटकर, टिकिया बनाकर, सुखाकर ) उसे पूर्ववत् घीकुमारकी जड़के भीतर रखकर और हाण्डीमें बन्द करके १ दिन पकाइये | जब हाण्डी स्वांग शीतल हो जाय तो उसमें से airat निकालकर पीसकर रखिये ।
इसमें से नित्यप्रति १ रत्ती दवा गुड़ में मिलाकर खिलाने और पथ्य पालन करनेसे भयङ्कर कुठ कि जो समरत शरीरमें व्याप्त हो और जिसमें शिराएं दीखती हों, जो ब्रह्महत्यादि पापोंसे उत्पन्न हुवा हो वह भी नष्ट हो जाता है । कुटके लिये संसार में इससे अच्छी औषध नहीं है । (२६४७) तालकेश्वररसः ( ८ )
(र. का. . । कु. )
तालकं निष्कमेकन्तु त्रिगुणं लवणं तथा । भृङ्गराजरसेनैव भावनाः सप्त दापयेत् ॥
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
[ ४४७ ]
दिनसप्तप्रमाणेन छायायां शोषयेत्तथा । तस्य गुञ्जाप्रमाणेन गुटिकां कारयेत्ततः ॥ तालकेश्वरनामाऽयं वातरक्ते प्रदापयेत् । सर्वकुष्ठेषु दातव्यः सप्तसप्तदिनावधि || विदाहेषु च सर्वेषु छागीक्षीरेण संयुतम् । शून्यं च मण्डलं कुष्ठं श्वेतकुष्ठं तथैव च ॥ अष्टादशविधं कुष्ठं नाशयेन्नात्र संशयः ॥
वर्फी हरताल भस्म १ भाग और सेंधा नमक का चूर्ण ३ भाग लेकर सबको १ दिन भंगरे के रस में घोटकर छाया मे सुखावें । इसी प्रकार भंगरेके रसकी सात भावना देकर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लीजिये ।
इसे सात दिन तक सेवन करने से वातरक्त तथा शून्यता, मण्डलकुष्ट, और श्वेतकुष्ठादि समस्त प्रकारके कुष्ठ नष्ट होते हैं।
1
इसे विदाह में बकरी के दूध के साथ देना चाहिये। ( साधारण अनुपान -घी ) (२६४८) तालकेश्वररसः (९ ) ( र. का. . । कुष्ठ. ) सूताद्वाववलगुजा स्त्रीणि कणा विश्वात्रिकं त्रिकम् सार्धको ब्रह्मपुत्रस्य मरिचस्य चतुष्टयम् ॥ एकैको निम्बध तूरवीजयोर्गन्धकात्त्रयः । जातीटङ्कणतालानां भागाः दश दश स्मृताः ॥ युक्त्या सर्व मर्दयित्वा शिवास्वरसभावितम् । सान्द्रं विभावयेद् धूर्त्तरसादर्द्धपुटितं भवेद् ॥ रसकुष्ठहरः सेव्यः सर्वदा भोजनप्रियैः । देवदेवमुनिप्रोक्तः सर्वकुष्ठविनाशकः ।।
शुद्ध पारा २ भाग, बाबची ३ भाग, पीपल और सोंठ ३-३ भाग, ब्रह्मपुत्र विष ( अभाव में
For Private And Personal