________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
रसप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
[४८१]
AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA
घ्राणाक्षिकर्णजिह्वानां गदं चैव त्रिदोषजम् ।। और फिर उसे सम्पुटमें बन्द करके लघुपुटमें फूंक गलिताङ्गं वातरक्तं सर्वमेतद्वन्यपोहति ॥ दीजिये । पुटके स्वांगशीतल होनेपर उसमेंसे रसको स्वर्णमाक्षिकभस्म, शुद्ध हिंगुल ( शंगरफ)
| निकालकर पीसकर रखिये । तीक्ष्णलोहभस्म, स्वर्णभस्म, बङ्गभस्म, सीपकी। इसमेंसे एक एक रत्ती औषध अद्रकके रस भस्म, ताम्रभस्म, अभ्रकभस्म, शुद्ध अफीम, केसर, और सेंधानमकके चूर्णके साथ अथवा अरण्डीके रुद्राक्ष, सीसाभस्म, चीतामूल, भुना हुवा हींग, तैल और शहदके साथ या सेंधानमक, हींग और त्रिकुटा, हर, बहेडा, आमला, सहजनेके बीज, जीरेके चूर्ण के साथ सेवन करनेसे सर्व प्रकारके शूल अजमोद, अजवायन, पोपलामूल, भारङ्गी, ल्हसन, नष्ट होते हैं। स्याहजीरा और सफेद जीरा । सबका समान भाग यदि इसे कफ और वातज रोगोंको नष्ट महीन चूर्ण लेकर अद्रको रसमें घोटकर (४-४ | करनेवाली औषधोंके रस या क्वाथकी अनेक भावनाएं रत्तीकी) गोलियां बना लीजिये ।
देकर उन्हीं औषधोंके चूर्णके साथ सेवन किया इनके सेवनसे अग्निमांद्य, आमवात, कफ, जाय तो कफज और वातज रोग नष्ट होते हैं । जलोदर, अस्सी प्रकारके वातरोग, २० प्रकारके ( जिस रोगमें सेवन करना हो उसको नष्ट करनेप्रमेह, नाक, आंख और कानके त्रिदोषज रोग और | वाली औषधोंके रसमें घोटना चाहिए।) जिसमें अङ्ग गल गए हों वह वातरक्त रोग ___ यदि यह रस, हरिनके सींगकी भस्म, स्वर्णनष्ट होता है।
| भस्म और सुहागेको खील समान भाग एकत्र (२७२३)त्रिनेत्ररसः(२)(र.र.स.।उ.खं.अ.१८)
| मिलाकर घी और शहदके साथ सेवन किया जाय
तो पक्तिशूल नष्ट होता है। रसताम्रगन्धकानां त्रिगुणो वर्धितांशानाम् । अम्लेन मर्दितानां पुटपकानां निषेवितं भस्म ॥
(२७२४) त्रिनेत्ररसः (३) गुञ्जाप्रमाणमाकसिन्धुत्थचूर्णसंयुक्तम् । (वृ. नि. र.; र. रा. सुं. । ज्वर.; भा. प्र. । ख. २. ज्वर.) एरण्डतैलमाक्षिकमथ वा पटुहिङ्गजोरकोपेतम् ॥ शुद्धमूतं समं गन्धं मूतांशं मृतताम्रकम् । शमयति शूलमशेषं तत्तद्रसभावितं बहुशः। त्रिभिस्तुल्यैर्गवां क्षीरैर्मर्दयेदातपे खरे ॥ उपचूर्णैरनुपानैस्तैस्तैः सहितं कफानिलार्तिहरम्।। मईयेदिनमेकन्तु निर्गुण्डीशिगुजद्रवैः। एतच्च हरिणशृङ्गं मृतकाञ्चनटङ्कणोपेतम् । विधाय गोलं तं गोलमन्धमूषागतं पचेत् ॥ सघृतमधुपक्तिशूलं शमयति शूलं त्रिनेत्ररसः॥ त्रियामान बालुकायन्त्रे ततः खल्वे विचूर्णयेत।
शुद्ध पारा १ भाग, ताभ्रभस्म ३ भाग और अष्टमांशं विषं तत्र क्षिपेत्तेनापि मर्दयेत् ॥ शुद्ध गन्धक ९ भाग लेकर सबकी कजली करके त्रिनेत्राख्यो रसो होष देयो गुञ्जाद्वयोन्मितः। उसे नीबूके रसमें घोटकर गोला बनाकर सुखाइये | पञ्चकोलकषायेण छागीदुग्धेन वा सह ॥
भा०६१
For Private And Personal