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घृतपकरणम् ] द्वितीयो भागः।
[ २६१] दत्तमनुवासन यं शुक्राग्निवलवर्धनम् ॥ हलीमककामलपाण्डुरोगो वृंहणं वातपित्तनं गुल्मानाहहरं परम् ।
मूर्छा भ्रमःकम्पशिरोऽतिशूलम् ॥ नस्यै पानश्च संयुक्तमूर्ध्वजत्रुगदापहम् ॥ मेहाश्मरी वा गुदकीलकुष्ठं
__ जीवन्ती, अतिबला (कंघी), मेदा, काकोली, शिरोगतो नाशमुपैति रोगः। क्षीर काकोली, जीरा, पीपल, काकनासा, काकजंघा, नस्यप्रदानेन प्रयोजितेन कौंचके बीज,कचूर,काकड़ासींगी, जीवक,श्वेतसारिवा, पानेन पाण्डवामयराजयक्ष्मा॥ कृष्ण सारिवा, पिया बांसा, हर्र,बहेड़ा,आमला, सोंठ, नाशं शमं यान्ति हलीमको वा और पीपलामूलका कल्क ( पिट्ठी) समान भाग, वस्तिप्रदानेन गुदोद्भवश्च । और सबसे दो दो गुना धी तथा तैल, एवं तैलसे रोगो विनाशं समुपैति पुंसां १६ गुना गायका दूध लेकर सबको एकत्र मिला विसर्पविस्फोटकमोक्षणेन ॥ कर मन्दाग्नि पर पकाइये । जब समस्त दूध जल जीवन्ति, कुड़ेकी छाल, मुलैठी, पोखरमूल, जाय तो छान लीजिए।
गोखरु, बला (खरैटी ), अतिबला ( कंघी ), इसे स्नेहबस्तिद्वारा प्रयुक्त करनेसे बल, वीर्य | नीलोत्पल ( नीलोफर ), भुई आमला, जवासा, और जठराग्निकी वृद्धि होती है । वातपित्त, गुल्म त्रायमाणा, पीपल, कूठ, मुनक्का ( द्राक्षा ) और
और अफारा नष्ट होता है तथा इसे पीने और आमला । समान भाग मिलाकर १ प्रस्थ इसकी नस्य देनेसे समस्त ऊर्ध्वजत्रुगत ( गलेसे । (८० तोले) लें और सबको कूटकर ४ प्रस्थ पानीमें ऊपरके ) रोग नष्ट होते हैं ।
पकाएं । जब १ प्रस्थ पानी शेष रहे तो छानलें। (२०४१) जीवन्त्यादिकं धृतम्
तत्पश्चात् यह काथ, २ प्रस्थ बकरीका दूध, १ (वृ. नि. र. । क्षय.) प्रस्थ दही और १ प्रस्थ घृतको एकत्र मिलाकर जीवन्तिकावत्सकयष्टिकानां
मन्दाग्नि पर पकाएं। सपौष्करं गोक्षुरकं बले द्वे ।
जब केवल घृत शेष रह जाय तो उतार कर नीलोत्पलं तामलकी यवासं
छानलें। सत्रायमाणा मगधा च कुष्ठम् ॥
इसे पिलाने, भोजनके साथ खिलाने, और द्राक्षामलक्या रसप्रस्थमेकं
नस्य तथा वस्तिद्वारा प्रयुक्त करनेसे राजयक्ष्मा प्रस्थद्वयं छागलकं पयश्च । रोग नष्ट होता है । इसके अतिरिक्त यह हलीमक, प्रस्थं तु दनो विपचेद् घृतं वै । कामला, पाण्डु, मूछो, भ्रम, कम्प, शिरशूल, प्रमेह,
पाने प्रशस्तं च तथैव भोज्ये ।। अश्मरी और बवासीरका नाश करता है । नस्ये च वस्तावपि योजयेत् तत्
इसे शिरोरोगमें नस्यद्वारा प्रयुक्त करना विनाशमेन्याशु च राजयक्ष्मा। लाहिए. गजयक्ष्मा और पाण्ड रोगमें पिलाना चाहिए,
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