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[१६८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[चकारादि मृमिना ततः साधं सिद्धं सर्पिर्निधापयेत्ः (दधिसाहचर्याच्चाङ्गेरी स्वरसश्चतुर्गुणम्) ग्रहण्योंविकारनं गुल्महृद्रोगनाशनम् ।
सोंड, पीपलामूल, चीता, गजपीपल, गोखरु, शोफप्लीहोदरानाहमूत्रकृच्छूज्वरापहम् ।
पीपल, धनिया, बेलकी छाल, पाठा, अजवायन कासहिकारुचिश्वाससूदनं सर्वगुल्मनुत् ॥
इनके क क और धीसे चारगुने चाङ्गेरी (चूका
तिपतिया ) के स्वरस तथा चारगुने दही (और ____पीपल, सोंठ, पाठा, अजवायन, सोंठ, प्रत्येक
चारगुने जल) के साथ घृत पका लीजिए। ३ पल (१५ तो०) लेकर चार गुने पानीमें पका कर चौथाई पानी शेष रहने पर छान लीजिए ।
___ यह घृत कफ, वायु, बवासीर, ग्रहणी, मूत्र
कृच्छू, प्रवाहिका (पेचिश), गुदभ्रंश (कांच इस काथ और भारंगी, पीपलामूल, सोंठ, मिर्च,
निकलना) और अफारेको नष्ट करता है । पीपल, चव्य, चीता, गोखरु, पीपल, धनिया, बेलकी छाल, पाठा ओर अजवायनमें से प्रत्येक
(१७७०) चाङ्गेरीवृतम् (वं. से. । बालरो.) आधा आधा पल (२॥ तोले). लेकर इनके कल्कके
अजाक्षीरसमं सर्पिश्चाङ्गेरीस्वरसाढ के साथ ४० पल (२॥ सेर) धी मन्दाग्नि पर पका
समझा धातकी लोधं कपित्थोत्पल सैन्धवैः । लीजिए।
सव्योषकुष्ठबिल्वान्दैः पिष्टैः प्रस्थोन्मितं घृतम् ।।
पचेगाहण्यतीसारान्हन्ति पथ्यभुजः शिशोः॥ यह घृत ग्रहणी, अर्श (बवासीर), गुल्म,
घी १ प्रस्थ (१ सेर) बकरीका दूध १ प्रस्थ, हृद्रोग, सूजन, तिल्ली, उदररोग, आनाह (अफारा)
चांगेरी (चूका) का स्वरस ४ सेर। (पानी ४ सेर)। मूत्रकृच्छ्र, ज्वर, खांसी, हिचकी, अरुचि, श्वास
कल्क द्रव्य-मजीठ, धायके फूल, लोध, कैथ, और हर प्रकारके गुल्मका नाश करता है।
नीलोफर, सेंधानमक, सोंठ, मिर्च, पीपल, कूठ, (१७६९) चाङ्गेरीधृतम्
| बेलगिरी, नागरमोथा प्रत्येक २० माशे । (ग. नि. घृता. १; भै. र.; . मा.; धन्वं.; र.र.; .
यथा विधि घृत पका लीजिए। च. द. । ग्रह.; शा. सं. म. ख. । अ. ९) ।
__यह घृत बच्चोंको खिलाने और पथ्यपालन
करानेसे उनका अतिसार और ग्रहणी रोग नष्ट नागरं पिप्पलीमूलं चित्रको हस्तिपिप्पली;
होता है। श्वदंष्ट्रा पिप्पली धान्य विल्वं पाठायमानिका ।
(१७७१) चाङ्गेरीघृतम् चाङ्गेरीस्वरसे सर्पिः कल्कैरेतैर्विपाचयेत् । । (ग. नि.; भै. र.; च. द.। शु. रो.; वृ. यो. त. चतुर्गुणेन दना च तघृतं कफवातनुत् ॥ ___त. १२७; वं. से.; च. सं. । चि. अति.) असि ग्रहणीदोषं मूत्रकृच्छं प्रवाहिकाम्चाङ्गेरीकोलदध्यम्लनागरक्षारसंयुतम् । गुदभ्रंशाचिमानाहं घृतमेतद्वयपोहति ॥ घृतमुत्कथितं पेयं गुदभ्रंशे रुजापहम् ॥
१ यवक्षारसमायुतमिति र. र. ।
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