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रसप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
[४६३]
याममेकं पुनस्तालं शोधयित्वा च तत्तथा । स्वांगशीतल होनेपर उसमें से हरतालको निकालपुनर्यामं पुनर्याममेवं वेलात्रयं बुधः । कर १ दिन गोमूत्रमें भिगोकर पुनः उपरोक्त कुरुते मर्दनं शोषं तण्डुलीयजलेन च । विधिसे पकाइये; इसी प्रकार कुल तीन बार पकातथा कृत्वा त्रियामं तद्गण्डदूर्वारसैस्तथा । कर हरतालको निकाल लीजिए और १ पहर तक कूष्माण्डकजलैरेवं त्रिफलाया जलैस्तथा। केलेकी जड़के रसमें घोटिये । इसी प्रकार केलेकी तथैवं मर्यते काकमाचीजातद्रवैः पुनः । जड़के रस, चौलाईके रस, बड़ी दूबके रस, पेठेके सेहुण्डपयसा दद्याद्डसौभाग्यपीतिकाः। रस, त्रिफलाकाथ और मकोयके रस में ३-३ बार ततो हि चौषधं ह्येतन्निरुध्यात्काचकूपके ॥ घोटिये, हर बार १--१ पहर घोटकर सुखा लेना यामद्वादशपर्यन्तमग्निं कुर्यादहर्निशम् ।। चहिये । स्वाङ्गशीतं समुत्तार्य पूर्वोक्तं कर्मकारयेत् ।। ____ अब इस हरतालमें ( उसका आठवां भाग) रम्भाकन्दादिकं कर्म कृतं यत्मथमं किल । थोहर ( सेंड )का दूध, गुड़, सुहागा और हल्दी तथैव च पुन कुर्यात्पड्यामं वहिदीपनम् ॥ मिलाकर आतशी शीशीमें भरकर ( बालकायन्त्र एवं तालकसत्वं स्यादधस्तिष्ठति निश्चितम् । । में) निरन्तर १२ पहर तक पकाइये। जब हाण्डी खोटकाभं गुरुतरं सोज्ज्वलं तारसन्निभम ॥ स्वांगशीतल हो जाय तो उसमेंसे हरतालको निकालवहिसंयोगतश्चापि न समुड्डीयते किल। कर केलेकी जड़ आदि समस्त औषधोंके रसमें विकल्पो नात्र कर्तव्यो व्यासवाक्यमिदं यथा| पूर्वोक्त विधिसे घोटकर तथा सेंडका दूध इत्यादि
१ शेर हरतालके चावल जैसे बारीक टकडे मिलाकर ६ पहर बालकायन्त्रमें पकाइये, और करके उन्हें १ दिन गोमूत्रमें भिगोइये, फिर कपड़
स्वांगशीतल होनेपर उसकी तलीमें पड़े हुवे हरमिट्टी की हुई हाण्डीमें पहिले थोडासा बे बुझा
तालसत्वको निकालकर सुरक्षित रखिये । यह पत्थरका चूना डालकर उसपर काञ्जी छिड़क सत्व भारी, उज्ज्वल और चांदीके समान होगा तथा दीजिए, और फिर चूनेपर एक कपड़ा ढककर
अग्निपर रखनेसे भी स्थिर रहेगा । इस कथनको उसपर हरताल फैला दीजिये। काजी इतनी अधिक
व्यासवाक्यके समान सत्य समझना चाहिये । न डालनी चाहिये कि चूना अधिक गीला होकर (२६७५) तालसत्वविधिः(३)(र.चिं.स्तब.५) कपड़ेको लग जाय । इसके पश्चात् उक्त हरतालपर अतसीतैलसंभृष्टं तालकं हण्डिकान्वरे । पुनः कपड़ा ढककर उसपर चूना डालकर उसके । धृत्त्वा काचघटे पश्चान्मुद्रयेत्तन्मुखं भृशम् ॥ ऊपर थोड़ी काञ्जी छिड़क दीजिए और फिर वहियोगोऽथ कर्तव्यो द्वियामे सत्त्वनिर्गमः। हाण्डीके मुखपर शराव ढककर कपरमिट्टी कर अनया क्रियते रीत्या चोत्तमं सत्वपातनम् ॥ दीजिये और मुखाकर चूल्हेपर चढ़ाकर उसके दृढं च सैन्धवं दत्वा युज्यते वझिसङ्गमे । नीचे १ पहर अग्नि जलाइये। तत्पश्चात् हाण्डीके सर्वकार्यकरं सम्यक् सत्वं निर्दोषमुत्तमम् ।।
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