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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४६४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [तकारादि vornnanowwwnnnnnnnnvv vvinanNAVI/AANVvvvvvvvvvvxvxvov/ शुद्ध हरतालको अलसीके तैलमें भूनकर मृदु मो यदा याति श्वेतधमो यदाऽऽगतः । आतशी शीशीमें भरकर उसका मुख बन्द मुद्रयित्वा मुखे चाथ वनियामाष्टकं ददेत् ॥ करदें, फिर उस शीशीको कपरमिट्टी की हुई मज़बूत एवं निष्पद्यते सत्वं तालकस्य विशुद्धिमत् । हाण्डीमें रखकर उसके चारों ओर हाण्डीके गले कमण्डलुप्रमाणेऽथ गोमूत्रस्यान्तरे क्षिपेत् ॥ तक, दबा दबाकर पिसा हुवा सेंधा नमक भर पुनस्तद्विपचेन्मूत्रं यावन्मूत्रक्षयो भवेत् । दीजिए, तत्पश्चात् हाण्डीके मुखको शरावसे बन्द तत उत्तार्यते सत्वं शीतं नीत्वा पुनश्च तत् ॥ करके उसपर कपरमिट्टी करके दो पहर तक अग्नि अथ गन्धस्य खण्डानि त्रिंशदंशमितानि च । लगाइये । इस क्रियासे उत्तम सत्व निकल आता है। समं सत्त्वेन कार्याणि मिश्रितानि सटङ्कणम् ॥ (२६७६) तालसत्वविधिः (४) कृत्वाऽथ ध्मापयेद्गाढं ततः सत्वं हि जायते । खोटरूपमिदं सत्वमक्षयं दोषवर्जितम् ।। ( रसें. चिं.। अ. ७; आ. वे. प्र. । अ. ५) शुक्लद्युतिनिभं पश्चाच्छ्रेष्ठपित्तलमानयेत् । जैपालसत्ववातारिवीजमिश्रं च तालकम् ।। एकादशविभागं हि भागैकोस्य च खोटतः॥ कुप्पीस्थं बालुकायन्त्रे सत्वं मुञ्चति यामतः ॥ ध्मातव्यं सकलं मूषे रूप्यं किञ्चित्पुनः क्षिपेत् । • जमालगोटेका सत, अरण्डीके बीज और | एवमुत्पद्यते रूप्यं चन्द्रकान्तिसमद्युति ॥ हरताल समान भाग लेकर एकत्र खरल करके, उत्तम भूमिमें उत्पन्न रेह मिट्टी २ सेर तथा आतशी शीशीमें भरकर १ पहर तक बालुकायन्त्रमें शुद्ध तबकी हरताल १ सेर लेकर दोनोंको तीन पकानेसे हरतालका सत्व निकल आता है। दिन तक गोमूत्रमें धोटिये । तत्पश्चात् उसमें १५ सेर सुहागा, ३० सेर तिलका तेल और १५ सेर (२६७७) तालसत्वविधिः (५) । हस्तिकर्णपलाशका तैल मिलाकर धूपमें घुटवाइये। __(र. चिं. । स्तबक ५) जब घोटते धोटते सूख जाय तो उसे आतशी योग्यभूमिसमुद्भूतं क्षारिकालवणं नयेत् ।। शीशीमें भरकर (बालुकायन्त्रमें) ४ पहरकी अग्नि शेरद्वयप्रमाणेन शेरमेकं च तालकम् ॥ दीजिये। जब चार पहर पश्चात् शीशीमेंसे हल्का एवं गोमूत्रमध्यस्थमनेनापि द्वयं ततः । हल्का धुंवां निकलकर सफेद धुवां निकलने लगे खल्वस्थं मर्दयेद्गादं दिनानि त्रीणि तालकम्॥ तब शीशीके मुखको खिड़ियामिट्टीके डाटसे बन्द कर दश पञ्च च भागाः स्युष्टङ्कणस्त्रिंशतिः पुनः। दीजिए और आठ पहरकी अग्नि और दीजिये एवं तिलतैलस्य दातव्या तदधै हस्तिकर्णजम् ॥ हाण्डीके स्वांग शीतल होनेपर शीशीमेंसे सत्वको एकतो मद्यते तापे पश्चाच्छुष्कं तदिष्यते। निकाल लीजिये ।। काचकूपिगतं कार्यो वहिर्यामचतुष्टयम् ॥ इस सत्वको १ कमण्डलं गोमूत्रमें डालकर १ गोमूत्र सत्वसे ४ गुना लेना चाहिये । For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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