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कषायप्रकरणम् ]
द्वितीयो भाग ।
[ ३२९ ]
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(२२७७) त्रिफलादिक्काथः
संहजनेकी छालके काथमें पीपल और बायबिड़ङ्गका ( आ. वे. वि. । चि. अ. ४०) चूर्ण मिलाकर पीनेसे कृमि रोग नष्ट होता है। त्रिफला कटुका भीरु पटोलामृतपर्पटः । | (२२८१) त्रिफलादिकाथः (ग. नि. । ज्वर.) काथं पीत्वा जयेजन्तू रोगं दुष्टस्तोद्भवम् ॥ | त्रिफलाऽतिविषाँ मुस्तं क्रमुकं सकलिङ्गकम् ।
त्रिफला, कुटकी, शतावर, पटोलपत्र, गिलोय पटोलारग्वधश्चैव रोहिणी चित्रकं समम् ॥ और पित्तपापड़े का काथ पीनेसे अशुद्ध पारद काथ:क्षौद्रयुतः श्लेश्म ज्वरकासगलामये । खानेसे उत्पन्न विकार नष्ट होते हैं।
त्रिफला, अतीस, मोथा, सुपारी, इन्द्रजौ, (२२७८) त्रिफलादिक्काथः
पटोलपत्र, अमलतास, कुटकी, और चीतेके काथ (वृ. नि. र.; यो. र. । शोथ.) में शहद मिलाकर पीनेसे कफजज्वर, खांसी त्रिफलाकाथपानं हि महिषीसर्पिषा सह। और गलरोग नष्ट लोते हैं। हन्ति शोथं प्रमेहश्च नाडीव्रणभगन्दरम् ॥ (२२८२) त्रिफलादिकाथ: (वं. मा. प्र. वृ.नि.र)
त्रिफलाके क्वाथमें भैंसका घृत मिलाकर पीनेसे त्रिफलादारुदाय॑द्वकाथः क्षौद्रेण मेहहा। शोथ, प्रमेह नाडीव्रण ( नासूर ) और भगन्दर नष्ट गुडूच्या स्वरस पीतो मधुना सर्वमेहंजित् ॥ होता है।
त्रिफला, देवदारु, दारुहल्दी और मोथेके (२२७९) त्रिफलादिक्काथः
काथमें अथवा गिलोयके स्वरसमें शहद मिलाकर (ग. नि. । अम्ल.; वं. मा. । अ. पि.) पीनेसे सर्व प्रकारके प्रमेह नष्ट होते हैं। फलत्रिकं पटोलश्च तिक्ताकाथः सितायुतः। (२२८३) त्रिफलादिकाथः (. मा.। व्रणशो.) पीतालीतकमध्वाक्तो ज्वरच्छर्यम्लपित्तहा॥ त्रिफला खदिरो दावी न्यग्रोधादिबलाकुशाः।
त्रिफला, पटोलपत्र और कुटकीके काथमें निम्बकोलकपत्राणि कषायःशोधने हितः ।। मिश्री, शहद और मुलैठी का चूर्ण मिलाकर पीनेसे | । त्रिफला, खैरसार, दारुहल्दी, न्यग्रोधादिगण, ज्वर, वमन और अम्लपित्त रोग नष्ट होता है। खरैटी, कुशा, नीम, और बेरीके पत्तोंका काथ घावों (२२८०) त्रिफलादिकाथः
के शुद्ध करनेके लिए प्रयुक्त करना चाहिये । (शा. सं.। ख. २ अ. २ ) (इनके काथसे घाव धोने चाहियें ।) त्रिफलादेवदारुश्च मुस्ता मूषककर्णिका। (२२८४) त्रिफलादिक्काथः शिरेतैःकृतः काथः पिप्पलीचूर्णसंयुतः ॥ (वा. भ. । चि. अ. अ. १) विडङ्गचूर्णयुक्तश्च कृमिघ्न कृमिरोगहा ॥ त्रिफला पिचुमन्दत्वङ्मधुकं वृहतीद्वयम् । त्रिफला, देवदारु, मोथा, मूषाकर्णी, और समसूरदलं काथःसघृतो ज्वरकासहा ।। १ त्रिवृतेति पाठान्तरम् । २ कटुकमिति पाठान्तरम्
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