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घृतप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
[३६९]
त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला ), खस, त्रिफलाका काथ, २ सेर, दही २ सेर, घी अमलतास, कुटकी, अतोस, शतावर, सतौनेकी १ सेर, और मुलैठीका कल्क पाव सेर लेकर सबको छाल, गिलोय, हल्दी, दारु हल्दी, चीता, निसोत, एकत्र पकाइये । जब सब पानी जल जाय तो मूर्वा, पटोलपत्र, नीमकी छाल, सुगन्धबाला, चिरायता, घीको छान लीजिए । इसकी नस्य लेनेसे शिरोरोग बच, इन्द्रायण, पद्माख, नीलोत्पल, दोनों प्रकारकी नष्ट होते हैं। सारिवा, मुलैठी, चव, लाल चन्दन, धमासा, (२४५०) त्रिफलादिघतम् पित्तपापड़ा,त्रायमाणा, वासा [अडूसा,रास्ना, केसर, (यो. र. । स्त्री.; भा. प्र. । ख. २ यो. रो.) मजीठ, पीपल और सोंठका कल्क पावसेर [प्रत्येक त्रिफलां द्वौ सहचरौं गुडूची सपुनर्नवाम् । वस्तु समान भाग मिश्रति ], घी १ सेर और शुकनासा' हरिद्रे द्वे रास्नां मेदां शतावरीम्॥ आमलेका स्वरस २ सेर लेकर सबको एकत्र कल्कीकृत्य घृतप्रस्थं पचेत् क्षीरे चतुर्गुणे । मिलाकर पकाएं । जब समस्त रस जल जाय तो | तत्सिद्धं पाययेनारी योनिरोगप्रशान्तये ॥ घी को छान लें।
त्रिफला, नीले और पीले फूलवाली ( दोनों ___ इसके सेवनसे विसर्प, ज्वर, श्वास, गुल्म, प्रकारकी ) कटशरैया, गिलोय, पुनर्नवा, शुकनासा कुष्ठ, पाण्डु, तिल्ली और अग्निमांद्यका नाश होता है। ( श्योनाक वृक्षकी छाल ), हल्दी, दारुहल्दी,
(मात्रा ६ माशेसे १ तोले तक । गर्म दूधमें | रास्ना, मेदा और शतावरी । सब चीजें समान डालकर पिएं)
भाग मिलाकर पाव सेर लें और सबको पानीके (२४४८) त्रिफलादिघृतम्
साथ पीसकर कल्क बनालें । फिर यह कल्क; ४ (Q. मा.; वं. से.; यो. र.; च. द. | नेत्र०) सेर दूध और १ सेर घी एकत्र मिलाकर पकाएं। त्रिफलाव्योषसिन्धृत्थैघृतं सिद्धं पिबेन्नरः। जलांश जल जाने पर घीको छान लें । चक्षुष्यं भेदनं हृद्यं दीपनं कफनाशनम् ॥ इस घीको पीनेसे योनिरोग नष्ट होते हैं।
- हर्र, बहेड़ा, आमला, त्रिकुटा (सोंड, मीर्च, ( मात्रा—१ तोला तक । ) पीपल ), और सेंबाके कल्क तथा इन्हीके काथके (२४६१) त्रिफलादिघतम साथ सिद्ध घृत आंखोंके लिए हितकारी, भेदन,
(यो. र. । नेत्र.; भाव. प्र. । ख. २ नेत्र.) हृद्य, दीपन और कफनाशक होता है।
| शतमेकं हरीतक्या द्विगुणं च विभीतकम् । (२४४९) त्रिफलादि घृतम् (वै.म.र. । प. १६) चतुर्गुणं त्वामलकं वृषमार्कवयोःसमम् ॥ वरायाःकाथसंसिद्धं क्षीरोत्थदधिसाधितम् । चतुर्गुणोदकं दत्त्वा शनैर्मद्वमिना पचेत् । सर्पिर्मधुकसंसिद्धं नस्याद्वै मूर्धरोगजित् ॥ भागं चतुर्थ संरक्ष्य काथं तमवतारयेत् ॥
१ त्रिवृतां शुण्ठीमिति पाठान्तरम् ।
२ विंदारिकामिति पाठान्तरम् । भा. ४७
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