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भारत - भैषज्य रत्नाकरः ।
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चूल्हे में तुषाग्नि (धानइत्यादिकी भूसीकी आग ) जलाकर उसपर खरल रखकर उसमें पारा डाल दीजिए, जब खरल गर्म हो जाय तो उसमें थोड़ा थोड़ा गन्धकका चूर्ण डालकर घोटिए यहां तक कि पारदसे छः गुना, गन्धक जल जाय । (१५११) गंन्धकतैलपातनम्
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[ गकारादि
इस तेलकी ३ बूंद पानके ऊपर डालकर उस पर २ रत्ती शुद्ध पारद डालकर उंगलीसे मर्दन करके खा लीजिए, और पश्चात् गोदुग्ध पीजिए । इस प्रयोगसे कामशक्तिकी वृद्धि; क्षय, पाण्डु, दुष्टग्रहणी, शूल, कास, श्वास, और आमाजीर्णका नाश होता है तथा शरीर हल्का हो जाता है ।
गन्धकके गुणों का वर्णन करने में शङ्करके अतिरिक्त अन्य कोई समर्थ नहीं हो सकता । (१५२२) गन्धकदोषाः ( भा. प्र. । खं. १ ) अशुद्ध गन्धकः कुर्यात्कुष्ठं पित्तरुजां भ्रमम् । हन्ति वीर्यबलं रूपं तस्माच्छुद्धः प्रयुज्यते ॥
(र. प्र. सु. । अ. ६,; आ. प्र. । अ. २) कलांशव्योषसंयुक्तं शुद्धगन्धकचूर्णकम् । वस्त्रे वितस्तिमात्रे तु गन्धचूर्ण सतैलकम् ॥ विलिप्य वेष्टयित्वा च वर्त्ति सूत्रेण वेष्टयेत् । धृत्वा संदशतो वर्त्तिमध्यं प्रज्वालयेच्च ताम् || वितः पतते गन्धो विन्दुशः काचभाजने ।
द्रुतं प्रक्षिपेत्पत्रे नागवल्ल्या स्त्रिविन्दुकाम् ॥ रसं वल्लमितं तत्र दत्त्वाऽङ्गुल्या विमर्दयेत् । तत्सर्वं भक्षयेत्पश्चाद्वोदुग्धं चानु संपिबेत् ॥ कामस्य दीप्तिं कुरुते क्षयपाण्डुविनाशनम् । ग्रहणीं नाशयेदृष्टां शूलार्तिश्वासकासकम् ।। आमाजी प्रशमेलघुत्वं च प्रजायते । गन्धकस्य गुणान्वक्तुं शक्तः कः शम्भुना विना ॥
शुद्ध गन्धकके चूर्णमें १६ वां भाग त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल) का चूर्ण मिलाकर तैलमें घोटकर एक बालिश्त चौड़े कपड़े पर उसका लेप करके बत्ती बना लीजिए और फिर उसके ऊपर कचे सूतका डोरा लपेट दीजिए। अब इस बत्तीको चिमटे से पकड़ कर जलाइये और उल्टी लटकाए रहिए । इस प्रकार जलानेसे उससे जो तैल टपके उसे कांच के बरतन में इकट्ठा कर
५ तो शुद्ध गन्धकके चूर्ण और १ | तला राइको पीसकर एक अच्छे सफेद कपड़े में लपेटकर बत्ती बना लीजिए और इसे घी में भिगोकर चिमटेसे पकड़कर जलाइये और उल्टी लटकाए रहिए; इससे जो वृत मिश्रित द्रुत ( पतला ) गन्धक निकले उसमें १। तोला त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ) का चूर्ण मिला लीजिए ।
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लीजिए ।
उचित प्रतीत होता है ।
यतः अशुद्ध गन्धक कुष्ट, पित्तरोग और भ्रम उत्पन्न करता तथा वीर्य, बल और रूपका नाश करता है अतएव शुद्ध गन्धकही प्रयुक्त किया जाता है ।
* शुद्ध पारदके स्थान में २ रत्ती रस सिन्दूर डालना
(१५२३) गन्धकद्भुति: ( बं. से. । रसा. ) पलमिह गन्धकचूर्ण राजिकातःकर्षक लितमादाय सततरवसननिरुद्धं हविषा प्लुतशोषितं वह्नौ ।। तद्रवमाज्ये मग्नं त्रिकटुकचूर्णे ककर्षसंयुक्तम् । मिलितैकशाणमात्रं प्रातः खाद्यं नियतपर्णम् ॥ वर्णबलयुक्तमेतज्जनयति कुरुते देहसुखम् | सतताभ्यासवशादतिजनयति सुधाधाम लावण्यम्
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