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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् द्वितीयो भागः। [२७ ] आमलेके चूर्णको गुडमें मिलाकर सेवन करनेसे, (१२६६) गुडाकाद्यास्त्रयो योगाः वीर्यवृद्धि, श्रमनाश, तृप्ति रक्तपित्त (नकसीर आदि), ( ग. नि. । शो०) दाह, शूल और मूत्रकृच्छू ( पेशाबका कष्टसे होना) गुडाकं वाऽथ सदारुविश्वं का नाश होता है । . सनागरं वाऽथ किराततिक्तम्। (१२६५) गुडाईकयोगः योगत्रयं श्रेष्ठतमं प्रदिष्ट (यो. र., च. द., . मा. । शोथ,वृ.यो.त.। त०१०६) मित्यौषधं शोफहरं नराणाम् ॥ गुडाकं वा गुडनागरं वा; (१) गुड़ और अदरक । (२) देवदारु और गुडाभयां वा गुडपिप्पली वा। | सोंठ । तथा (३) सोंठ और चिरायता । यह तीनों कर्षाभिवृद्ध्या त्रिपलप्रमाणं; | योग शोथ रोगके लिए अत्यन्त प्रभावशाली हैं। खादेनरः पक्षमथापि मासम् ।। (१२६७) गुडाष्टकम् शोफपतिश्यायगलास्य रोगान् । (वृ.यो. त.। त.७१, वृ. नि. र. । अजी., र. र. । सश्वासकासारुचिपीनसादीन् । - उदा०, वं. से. । उदा० ) जीर्णज्वरा ग्रहणीविकारान् व्योषदन्तीत्रिवृचित्राकृष्णामूलं विचूर्णितम् । हन्यात्तथान्यानपि वातरोगान् ॥ तच्चूर्ण गुडसंमिश्रं भक्षयेत्मातरुत्थितः॥ अद्रक, सोंठ, हैड़ और पीपल में से किसी एतद्गुडाष्टकं नाम बलवर्णाग्निवर्धनम् । एक वस्तुके चूर्णको गुड़में मिलाकर १५ दिन | शोथोदावर्तशूलघ्नं प्लीहपाण्डवा मयापहम् ।। अथवा १ मास पर्यन्त प्रतिदिन १-१ कर्ष (१। त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल ) दन्तीमूल, तोले) मात्रा बढ़ाकर १२ कर्षकी मात्रा पर्यन्त निसोत, चीतेकी जड़की छाल, और पीपला मूल । पहुंचने तक सेवन करने से सूजन, जुकाम, गले समान भाग लेकर चूर्ण करके गुड़में मिलाकर प्रातः और मुखके रोग, श्वास, खांसी, अरुचि, पोनस, काल सेवन करनेसे बल, वर्ण, अग्निकी वृद्धि तथा जीर्णज्वर, बवासीर और ग्रहणी विकारादि तथा शोथ, उदावर्त, शूल, तिल्ली और पाण्डु रोगका अन्य वातज रोगोंका नाश होता है। नाश होता है। (प्र. वि.---१२ कर्ष मात्रातक पहुंचने के प्र. वि. गुड सबके बराबर मिलाकर ३ माशेसे पश्चात् प्रतिदिन १-१ कर्ष मात्रा घटानी चाहिए। ६ माशे तककी मात्रानुसार उष्ण जलके साथ यदि १२ कर्ष मात्रा सहन न हो सके तो | सेवन करना चाहिए । रोगी और रोग के बलाबलका विचार करके अधि- | (१२६८) गुडूचीलौहम् कसे अधिक जितनी मात्रा सहन हो सके उतनी (र, का. धे., भै. र. । वा. र., रसें. चि. । अ. ९. तक बढ़ाना चाहिए अथवा एक कर्षके स्थानमें | र. रा. मुं., रसें. सा. सं । पित्त. रो. आधा या चौथाई कर्ष मात्रा नित्यं बढ़ानी चाहिए। गुडूचीसत्वसंयुक्तं त्रिकत्रययुतं त्वयः । अनुपानमें उष्ण जलका व्यवहार किया जा सकता है।) . वातरक्तं निहन्त्याशु सर्वरोगहरं तथा ॥ For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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