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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[गकारादि
(१२५९) गुडादि चूर्णम् । इसे प्रतिदिन १ कर्ष (१। तोला ) की (० मा., बृ. नि. र., बं. से., यो. र., ग. नि. | मात्रानुसार शहद और धीमें मिलाकर भोजनके शोथ ३३ )
आदि, मध्य और अन्त में सेवन करनेसे अन्नद्रवशूल, मुडपिप्पलीशुण्ठीनां चूर्ण श्वयथुनाशनम् ।। जरपित्त और परिणाम शूल नष्ट होता है । आमाजीर्णप्रशमनं शूलघ्नं बस्तिशोधनम् ।। (१२६२) गुडादि योगः
गुड़, पीपल और सोंठका चूर्ण; सूजन, ( यो. र. । पीन., वृ. यो. त. । त. १३०) आमाजीर्ण और शूल नाशक तथा बस्तिशोधक है। गुडमरिचविमिश्रं पीतमाशु प्रकामम् । (१२६०) गुडादि चूर्णम् (भा. प्र.। शो. चि.) |
हरति दधि नराणां पीनसं दुनिवारम् ।। गुडात्पलत्रयं ग्राह्यं शृङ्गधेरपलत्रयम् ।
यदि तु सघृतमन्नं श्लक्ष्णगोधूमचूर्णैः । शृङ्गबेरसमा कृष्णा लोह वितिलयोः पलम् ।।
कृतमुपहरतेऽसौ तत्कुतोऽस्यावकाशः ॥ चूर्णमेतत्समुद्दिष्टं सर्वश्वयथु नाशनम् ॥
___ गुड़ और मिर्च (स्याह मिर्च ) के चूर्णको
दहीमें मिलाकर यथेच्छ मात्रामें पीनेसे कष्टसाय गुड ३ पल (१५ तोले ), अदरक (सोंठ)
पीनस भी नष्ट हो जाती है। ३ पल, पीपल ३ पल और मण्डूर ( भस्म ) तथा
यदि इस प्रयोगके साथ साथ महीन गोवूम तिल १-१ पल लेकर चूर्ण बना लीजिए । इसके
चूर्ण ( बारीक गेहूं के आटे) से निर्मित अन्नमें घृत सेवनसे सर्व प्रकारके शोथ नष्ट होते हैं।
डालकर (हलवा बनाकर ) सेवन कियाजाथ तो फिर ( मात्रा ४ माशे । अनुपाल त्रिफला काथ,
तो पीनस होनेकी सम्भावना ही नहीं रहती। गोमूत्र वा उष्ण जल)
(१२६३) गुडाचं चूर्णम् (वं. से. । अर्श.) __ (१२६१) गुडादि मण्डूरम्
गुडभल्लातकं शुण्ठी विडङ्गं वृद्धदारुकम् । (र. का. घे., भा० प्र., यो. र., वं. से. । शू.,
त्रिगुणं दीपनं वृष्यमर्शसो विड्बन्धनुत् ।। ___ वृ. यो. त. । त. ८५)
___ गुड़, भिलावा ( शुद्ध ), सोंठ, और बायबिडंग गुडामलकपथ्यानां चूर्ण प्रत्येकशः पलम् ।। १-१भाग तथा विधारा ३भाग लेकर चूर्ण बनावें। त्रिपलं लोहकिट्टस्प तत्सर्व मधुसर्पिषा ॥ यह चूर्ण दीपन (अग्निवईक), वृष्य और समालोड्य समश्नीयादक्षमात्रप्रमाणतः।। अर्श संबन्धी मलावरोध नाशक है। (मात्रा ३ आदिमध्यावसानेषु भोजनस्थ निहन्ति तत् ॥ | माशे। उ॥ जल अथवा त्रिफलाकाथके साथ अन्नद्रवं जरत्पित्तं परिणामरुजन्तथा ॥ । सेवन करें।)
गुड़, आमला और हर्रका चूर्ण १-१ पल (१२६४)गुडामलकयोगः (वृं.मा.,ग.नि.भू.कृ.२८ (५ तोले) और मण्डूर भस्म ३पल लेकर एकत्र गुडेनाऽमलकं वृष्यं श्रमघ्नं तर्पणं प्रियम् । मर्दन कर लीजिए।
पित्तासृग्दाहशूलघ्नं मूत्रकृच्छनिवारणम् ॥
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