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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ चकारादि
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एतदामसमुत्थानमविसारं सवेदनम् । | (१७२४) चित्रकादिचूर्णम् (बृ.मा.;यो.र.।ग्रह.) कफात्मकं सपित्तं च वर्ची बध्नाति वै ध्रुवम् ॥ चित्रकं हपुषा हिङ्ग दद्याद्वा तक्रसंयुतम् ॥
चीता, पीपलामूल, बच, कुटकी, पाठा, पञ्चकोलकयुक्तं वा तक्रेणैव प्रदापयेत् ॥ इन्द्रजौ, हर्र और सोंठके चूर्णको (गर्म पानीके
___ संग्रहणीकी शान्तिके लिए चीता, हाऊबेर साथ १॥-२ माशेकी मात्रानुसार) सेवन करनेसे
और हींगके चूर्णको अथवा पञ्चकोल (पीपल, वेदनायुक्त आमातिसार, कफातिसार और पित्ताति- |
पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ ) सहित इनके सारका नाश होता तथा मल बंध जाता है।
चूर्णको तक्रके साथ पिलाना भी हितकर है। (१७२२) चित्रकादिचूर्णम्
(१७२५) चित्रकादिचूर्णम् (र. र. । शू.) (यो. र.; वं. से. । आमवा,. वृ. यो. त.। त. ९३) चित्रकं कटुका पाठा कलिङ्गातिविषामृताः।।
शुद्धलोहमलाचूर्ण षट्पलं पञ्चकार्षिकम् । देवदारु वचा मुस्ता नागरातिविषाभयाः॥
हरीतक्या:कठिन्याश्च रसगन्धकयोःपृथक् ।। पिबेदुष्णाम्बुना नित्यं चूर्णमाममरुत्प्रणुत ॥ अर्धकर्ष ततःकर्ष चित्रकं नागरं कणा।
चीता, कुटकी, पाठा, इन्द्रजौ, अतीस, गिलोय सूक्ष्मैला तेजपत्रश्च वाटयालं भद्रमुस्तकम् ॥ देवद्वार, बच, मोथा, सोंठ अतीस और हर्र के थवानीधान्यकं धूपं विभीतक्यामलक्यपि। . समभाग मिश्रित चूर्णको (२-३ माशे की मात्रा- विडङ्गं शङ्खनाभिश्च अर्जुनाशनयोस्त्वचः ॥ नुसार) गर्म जलके साथ सेवन करनेसे आमवात | अपामार्गभवं मूलं सर्वमेकीकृतं शुभम् । (गठिया) रोग नष्ट होता है ।
पीठोपरि पदं न्यस्य प्रस्तये घृतभाजने ॥ नोट-अतीस २ भाग और अन्य सब पदार्थ
भुक्तोपरि च तचूर्ण कर्ष कामाचरेत् । १-१ भाग लेने चाहिएं । अथवा आधे आधे
तप्तोदकानुपानश्च ताम्बूलं भक्षयेत्ततः ॥ श्लोकद्वारा कथित (६-६ ओषधियोंके) दो प्रयोग
ततो भूमौ पदं दत्वा भूमे किश्चिद्यथा सुखम् । भी हो सकते हैं।
प्रत्यहं भक्षयेद्भक्त्या वह्निसन्दीपनं परम् ।। (१७२३) चित्रकादिचूर्णम् (वृ. नि.र.।कास.)
शूलमष्टविधं हन्ति विशेषात्परिणामजम् । चित्रकं पिप्पलीमूलं पिप्पली गजपिप्पली। अन्नद्रवं कृतं शूलं यकृत्प्लीहकृतश्च यत् ।। एतचूर्ण समं युक्तं मधुना श्लेष्मकासनुत् ॥ । शूलानामपि सर्वेषामौषधं नास्ति तत्परम् ।
' चीता, पीपलामूल, पीपल और गजपीपलके कामलापाण्डुरोगघ्नं हलीमकविनाशनम् ॥ 'चूर्णको (१॥-२ माशेकी मात्रानुसार) शहद में मानवानां कृपाहेतोर्देवदेवेन निर्मितम् । मिलाकर चाटनेसे कफज खांसी नष्ट होती है। चित्रकाद्यमिदं चूर्ण सर्वशूलान्तकं मतम् ॥x
x नोट-यह अन्तिम श्लोक किसी अन्य प्रयोग का प्रतीत होता है और लेखककी भूलसे यहां लिखा गया है, एवं इसीकारण इस योगका नाम भी “चित्रकादि" रखना पड़ा है।
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