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रसपकरणम् ]
द्वितीयो भाग।
[४११]
एक आदमीको हकीमजीके कहने के मुताबिक एक फिर इस ताम्रसे २ गुनी कृष्णाभ्रक भस्म और महीने तक सुवर्ण के तबक खिलाये. और उस आधा आधा भाग पारद (रससिन्दूर), पीपल, मरिच आदमीकी विष्टा प्रतिदिन एकट्ठी कराई, जब विष्टा | और विडङ्गका महीन चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह सूख गई तब उसको जलाकर पानीमें धोकर सुवर्ण खरल करें । निकाल लिया और हकीमजीको अपना पक्ष छोड़ना इसे २ मापेकी मात्रानसार सेवन करनेसे पड़ा । इस कारण वैद्योंसे हमारी प्रार्थना है कि
शूल, अम्लपित्त, शोथ, ग्रहणी और यक्ष्मादि रोग यदि पूर्ण फल चाहते हो तो जहां पर शास्त्र में
नष्ट होते हैं। इसपर किसी विशेष परहेज़की किसी रस प्रयोगमें सुवर्ण देना लिखा हो वहां
आवश्यकता नहीं है। उसकी भस्म ही डाला करें। यद्यपि शास्त्रोक्त रीति से शुद्र किए हुए धातुके देनेपर भी अपकार नहीं
__(नोट--ताम्रपत्रोंको घृतकुमारीके रसमें २०
बार बुझानेके पश्चात् उसीके रसमें घोटकर पुटद्वारा होगा। किन्तु अल्प गुण होगा। (रसा० सा० )
भस्म कर लेना उचित प्रतीत होता है। व्यवहा(२५७२) तात्रभस्मप्रयोगः (१)
रिक मात्रा ४-५ रत्ती ।) (र. र. स. । उत्तरखं. । अ. १३) पक्कताने रसः पिष्टो बलिना हिध्मिनां हितः॥ (२५७४) ताम्रभस्मप्रयोगः (३) पारा, गन्धक और ताम्रभस्मको एकत्र धोट
(र. चिं. म. । स्तव. ४ ) कर सेवन करानेसे हिचकी (हिका) रोग नष्ट विशद्भागमित तानं सूक्ष्म भागत्रयं शिला । होता है।
ताम्रतुल्यानि गृह्णीयाद्भव्यभल्लातकानि च ॥ - (मात्रा-२-३ रत्ती । अनुपान अद्रकका रस।) तानि संकुट्टयित्वाथ शिलातानं विमिश्रयेत् । (२५७३) ताम्रभस्मप्रयोगः (२)
द्विगुणं गन्धकं दत्त्वा सम्पुटे तत्परिक्षिपेत् ।। (रसे. चिं. म. । अ. ८) हण्डिकायन्त्रमध्यस्थं पञ्चयामावधिर्हि तत् । कन्यातोये ताम्रपत्रं सुतप्तं कृत्वा वारान् विंशति तावचुल्ल्युपरि क्षिप्त्वा वह्नि चाधः प्रदापयेत् ।।
प्रक्षिपेत्तत् । । अवतार्य स्वयं शीतं तत्तानं मृतमुत्तमम् ।। रसतस्तानं द्विगुणं ताम्रात् कृष्णाभ्रकं द्विगुणम्।। पिप्लीनां रसेनादौ चिश्चिकास्वरसेन च ॥ एतत् सिद्धं त्रितयं चूर्णितताम्राधिकैः पृथग्युक्तम्। वदर्याः स्वरसेनापि कन्यकाया रसेन तत् । पिप्पलीविडङ्गमरिचैः श्लक्ष्णं द्वैमाषिकं योज्यम्। भावनाश्च पुटं दत्त्वा प्रत्येकेन च पञ्च च ॥ शूलाम्लपित्तशोथग्रहणीयक्ष्मादिकुक्षिरोगेषु। ततः सूक्ष्म विचूाथ तत्तानं योग्यमात्रया। रसायनं महदेतत् परिहारो नियमितो नात्र ॥ पिप्पल्या सह तदद्यान्माषमात्र भिषग्वरः॥
तांबेके बारीक पत्रोंको अहि.में तपा तपा कर तदेतद्रेचयेत्सम्यग् यावदामावधिर्भवेत् ।। बीस बार घीकुमार (ग्वारपाठा) के रसमें बुझावें नैव मूर्छा न च क्लेदोवान्तिभ्रान्तिन विद्यते॥
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