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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[गकारादि
(१४००) गोजिह्वातैलम् (वं. से.,भा.प्र.उपदंश.) कुटजत्वकषायेण धान्यककथितेन वा। गोजीविडङ्गयष्टीभिः सर्वगन्धैश्च संयुतम्। बुवादोषगति वैद्यो यथा स्वौषधवारिणा॥ एतत्सर्वोपदंशेषु श्रेष्ठं रोपणमिष्यते ॥ एतद्रसायनं तैलं वलीपलितनाशनम् ।
गोजिया घास, बायबिडंग और मुलैठी से | हन्ति सर्वानतीसारान् ग्रहणी सर्वजामपि। सिद्ध तैल में सर्व गन्ध मिलाकर प्रयुक्त करनेसे सर्व
ज्वरं तृष्णां तथा श्वासं तथा हिक्कांवमिं भ्रमम् । प्रकारके उपदंशवण (आतशकके धाव) भर जाते हैं।
सोपद्रवां कोष्ठरुजं नाशयेत्सय एव हि । (१४०१) गोमयाद्यतेलम् (र.र.,भै.र.।नेत्ररोगा.) ग्रहणामि
| ग्रहणीमिहिरं नाम तैलं भुवनदुर्लभम् ॥
क क द्रव्य-धनिया, धायके फूल, लोध, गवां शकृत्काथविपकमुत्तमं
। मजीठ, अतीस, हर्र, खस, मोथा, नेत्रबाला, मोचहितञ्च तैलं तिमिरेषु नस्थतः।
रस, रसौत, बेलगिरी नीलोफर, तेजपात, नागकेशर, गोशकृत् (गोबर)के क्वाथ (अथवा स्वरस) से | कमलकेशर, गिलोय, इन्द्रजौ, कालानिसोत, पद्माक, सिद्ध तैलकी नस्य लेनेसे तिमिररोग नष्ट होता है। कुटकी, तगर, भूरी छरीला, भंगरा, काला भंगरा, (१४०२) ग्रन्थिकादि तैलम् (वं. से. । वा.व्याः) पुनर्नवा, आमकी छाल, जामनकी छाल, कदम्बकी ग्रन्थिकानिकणाशुण्ठीरास्नासैन्धवकल्कितम्। छाल, कुड़ेकी छाल, अजवायन, और जीरा १-१ माषकाथाम्बुना तैलं पक्षाघातं व्यपोहति ॥ | कर्ष (१। तोला)।
पीपला मूल, चीता, पीपल, सोंठ, रास्ना इनके कल्क और तक अथवा कुड़ेकी छालके और सेंधेके कक तथा उर्दके क्वाथसे सिद्ध तैल | काथ या नवीन धनियेके काथ अथवा दोषके अनुपक्षाघातका नाश करता है।
सार किसी अन्य ओषधिके काथके साथ १ प्रस्थ (१४०३) ग्रहणीमिहिरतैलम्
। (१ सेर) तैल पका लीजिए।
यह भुवनदुर्लभ ‘ग्रहणीमिहिर' नामक तैल (भै. र.; धन्वन्त; र. र. । ग्रह.)
रसायन बली (त्वचाकी झुर्रियां) पलित (बालोंकी धान्यं धातकी लोधं समङ्गातिविषाःशिवा।
सफेदी) नाशक और सब प्रकारके अतिसार, ग्रहणी, उशीरं मुस्तकश्चैव जलमोचरसाञ्जनम् ॥ ज्वर, तृष्णा, श्वास, हिक्का, वमन, भ्रम, और उपबिल्वं नीलोत्पलं पत्र केशरं पमकेशरम् ।
। द्रवयुक्त उदररोगोंका अत्यन्त शीघ्र नाश करता है। गुडूचीन्द्रयवश्यामाः पद्मकं कटुरोहिणी ।।
(प्र. वि.-इसे ३ से ६ माशे तक यथोचित तगरं जटिलाभृङ्गकेशराजपुनर्नवाः।
अनुपानके साथ पिलाना और पेट पर मलना चाहिए । आम्रजम्बूकदम्बानां वचः कुटजवल्कलम् । यवानीजीरकञ्चैव कार्षिकाणि प्रकल्पयेत् ।
- इति गकारादितैलप्रकरणम् तैलपस्थं पवेत्तेन तक्रेणान्यतमेन वा ॥
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