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भारत - भैषज्य रत्नाकरः ।
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शीतकालेऽग्निमन्ये च कफोच्छेदे तथामये वृद्धकोष्ठे च दुष्टेऽग्नौ अशगुल्मेऽथवामये ॥ शस्तं भुक्तं च तक्रं स्पादमीषां सर्वदा हितम् । सर्वकाले प्रशस्तं तु अजाजीलवणान्वितम् ॥ इति तक्रगुणान् ज्ञात्वा न दद्याद्यस्य तं शृणु । क्षये शोषे तथा क्षीणे नोष्णकाले शरत्सु च ॥ न मूर्च्छाभ्रमतृष्णासु तथा पैत्तिरसोद्धके । न शस्तं तक्रपानञ्च करोति विषमान्गदान् ॥
जिस प्रकार देवताओंको अमृत सबसे अधिक सुखकर होता है उसी प्रकार संसार में मनुष्यों के लिए तक हितकारी है I
अग्निमांद्य, कफजरोग, उदरवृद्धि, अग्निविकार, अर्श और गुल्ममें तथा शीतकाल में तक पीना अत्यन्त हितकारी है ।
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(२७९२) तक्रपानम्
( यो. र. ग. नि.; च द । उदर. ) वातोदरी पिवेत्तकं पिप्पलीलवणान्वितम् । शर्करामरिचोपेतं स्वादु पित्तोदरी पिबेत् ॥ यवानी सैन्धवाजाजीव्योषयुक्तं कफोदरी । सन्निपातोदरी तक्रं त्रिकटुक्षारसैन्धवैः ॥ पिवेद् छिद्रोदरी तक्रं पिप्पलीक्षौद्रसंयुतम् ।। बोरी तु पुषादीप्यकाजाजीसैन्धवैः । धूषणक्षारलवणैर्युक्तन्तु सलिलोदरी । मधुतैलवचाशुण्ठीशताडाकुष्ठसैन्धवैः || युक्तं प्लीहोदरी जातं सव्योषमुदकोदरी ।
तक्र सेवन करनेवाले व्यक्ति कभी दुखी नहीं | गौरवारोचकानाहमन्दवन्ह्यतिसारिणाम् ।।
होते, और तकसे नष्ट हुवे रोग पुनः नहीं उभरते ।
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जिस तक्रका रङ्ग बरफुके समान सफेद हो और जिसमें पके हुवे कैथके समान गन्ध और स्वाद हो उसके पीनेसे समस्त रोग नष्ट हो जाते 1
तक्रमें सेंधानमक और जीरका चूर्ण मिलाकर पीना सदैव लाभदायक होता है ।
यद्यपि तक इतना गुणकारी है तथापि क्षय, शोष, क्षीणता, मूर्च्छा, भ्रम, तृष्णा और पित्तज रोगों में तथा शरद ऋतु (आश्विन कार्तिक) और ग्रीष्मकालमें तक्र पीनेसे अनेकों भयङ्कर रोग उत्पन्न हो जाते हैं अत एव इन अवस्थाओं में तक कभी न पीना चाहिये ।
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[ तकारादि
नातिसान्द्रं हितं पाने स्वादुतक्रमपेलवम् || तकं वातकफार्त्तानाममृतत्वाय कल्प्यते ।
तक्रमें
वातोदर में सेंधानमक और पीपलका चूर्ण मिलाकर; पित्तोदर में - मधुरत में मिश्री और स्याह मिर्चका चूर्ण मिलाकर;
कफोदर में - अजवायन, संधा, जीरा, और त्रिकुटेका चूर्ण मिलाकर
सन्निपातोदरमें- त्रिकुटेका चूर्ण, यवक्षार और सेंधानमक मिलाकर ;
बद्धोदर में- हाऊबेर, अजवायन, जीरा और सेंवेका
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चूर्ण मिलाकर;
छिद्रोदर में - पीपलका चूर्ण और मधु मिलाकर; जलोदर में - त्रिकुटा, जवाखार और सेंधेका चूर्ण अथवा केवल त्रिकुटेका चूर्ण मिलाकर;