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[१५२ ]
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[चकारादि
(१७३६) चन्द्रप्रभागुटिका
यक्ष्माणं सभगन्दरं कफमरुत्पित्तोद्भवं पाण्डुताम् । ( र. रा. सु. । मेह; र. र. स. । उ. खं. अ. १७ | तं तं व्याधिसमूहशुक्रविकृतीन्ग्रन्थ्यबुदश्लीपदान् . हा. सं. । स्था. ३ अ. ५८ ) मेहांश्छुक्रविनाशमश्मरिरुजस्त्वन्यांश्चएलोजातिफलं मधृकयुगलं सारस्तथा खादिरः।
देहस्थितान् । कर्पूरामलकीजटा बहुसुता घोण्टाम्लसारस्तथा व्याधीन्हन्ति दृढाननेन विधिना चन्द्रप्रभा सेविता कासीस भवसारदाडिमफलं सर्वं च सम्मीलितम्। ।
मन्दाग्नेः परमं प्रदीपनमियं कुर्याज्जरां जर्जराम् ।
" स्वेच्छाहारविधौ च पानविषये शीतातपे मैथुने ॥ प्रत्येकं दधिदुग्धलाङ्गलिरसैर्युक्तं समं कल्कितम्।
भुक्तं नास्ति विरोधितं च सततं प्रोक्ता रसेन भावितं तस्य गुटिका च प्रकल्पिता।
पुरा ब्रह्मणा। जयेच्चन्द्रप्रभानाम तीब्रान् मेहादिकान् गदान् ॥ बाय बिडंग, गज पीपल, चीता, पीपलामूल, ___ इलायची, जायफल, मुलैठी, महुवा, खैरसार, मोथा, कचूर, सोनामक्खी भस्म, चिरायता, हर्र, कपूर, आमलेके वृक्षकी जड़की छाल, शतावर, बेर बहेड़ा, आमला, देवद्वार, चव, सोंठ, मिर्च, पीपल, अम्लवेत, कसीस, गूगल और अनारदाना समान भाग | बच, धनिया, हल्दी, दारहल्दी अतीस, निसोत, लेकर चूर्ण करके सबको दही, दूध और कलि- सेंधा नमक, काला नमक, खारी नमक, यवक्षार, हारीके रसकी एक एक भावना देकर गोलियां दालचीनी, इलायची तेजपात, लोहभस्म और बना लीजिए।
मिश्री ४-४ पल तथा अगर एक पल लेकर यह चन्द्रप्रभा गुटिका भयङ्कर प्रमेहका नाश महीन चूर्ण करके (पानीमें घोटकर ) गोलियां करती है।
बना लीजिए। (१७३७) चन्द्रप्रभागुटिका (ग.नि.गुटि.४)
इनके सेवनसे ६ प्रकारकी बवासीर, भयङ्कर
गुल्म, शोष, क्षय, कामला, मर्मगतनाड़ी ब्रण कीटप्नेभकणाग्निमागधिजटामुस्ताशठीताप्यकम्
( नासूर ), जलोदर, जीर्णज्वर, विद्रधि, भगन्दर, भूनिम्बत्रिफलासुराहचविकाव्योषं वचा
राजयक्ष्मा, कफज-पित्तज और वातज पाण्डु रोग,
धान्यकम् ॥ शक विकार, ग्रन्थि, अर्बुद, स्लीपद, प्रमेह, शुक्ररात्रीयुग्मविषात्रिवृत्रिलवणं क्षारत्रिजातान्वितम्। क्षय, अश्मरी इत्यादि अनेक रोगोंका नाश होकर लोहात्तत्र सिता चतुष्पलयुतं स्याद्वशिकायाः अग्निदीप्त होती है।
पलम् ॥। इसके सेवनकालमें खानपान, धूप आतप, हन्त्य सिषडेव गुल्ममजयं शोषं क्षयं कामलाम् । मैथुनादि किसी बातके परहेजकी आवश्यकता नाडीमर्मगदाञ्जलोदररुजो दीर्घज्वरान्विद्रधीन नहीं है ।
. १ बोलमिति पाठभेदः । २ सटीति पाठान्तरम् । ३ लाङ्गलीरसैस्तुम्बस्य मुद्गस्य चेति पाठान्तरम्
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