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रसप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
[३१५]
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लकुच ( बढ़ल )के स्वरसमें धोटकर चनेके बराबर सुहागा अग्निवर्द्धक और स्वर्ण तथा चांदीको गोलियां बना लीजिए।
शुद्ध करने वाला है। तथा विषके दोषोंको नष्ट इनके सेवनसे अग्निकी वृद्धि अत्यन्त शीघ्र करने वाला, हृद्य ( हृदयके लिए हितकारी) और होती है।
वात कफनाशक है। ( मात्रा-२-३ गोली । अनुपाल उष्ण एक दूसरे प्रकारका टङ्कण भी होता है जल या अद्रकका रस ।)
| जिसमें कुछ नीली झलक होती है। उसे नीलकण्ठ इति टकारादिरसप्रकरणम् । टङ्कण कहते हैं । यह गुणोंमें पहिले प्रकारसे श्रेष्ठ
होता है । इसको शोधनविधि भी पहिलेके समान... अथ टकारादिमिश्रप्रकरणम् । (२२०२) टङ्कणक्षारः (आ. वे. प्र.अ. ८) (२२०३) टङ्कणशोधनम् (शा.सं.खं.२अ.११) सौभाग्यं टङ्कणक्षारो धातुद्रावकमुच्यते । जीलाञ्जनं चूर्णयित्वा जम्बीरद्रवभावितम् । टङ्कणोऽनिकरो रूक्षः कफनो वात.पेत्तकृत् ॥ दिनैकमातपे शुद्धं भवेत्कार्येषु योजयेत् ।। अशुद्धष्टङ्कणो वान्तिभ्रान्तिकारी प्रयोजितः ।
एवं गैरिकं कासीसं टङ्कणानि वराटिका । अतस्तं शोधयेदेव वहावु फुल्लितःशुचिः॥
तुवरीशङ्खकङ्कुष्ठं शुद्धिमायाति निश्चितम् ।।
नीलाञ्जनके चूर्णको एक दिन जम्बीरी टङ्कणो वहिकृत्स्वर्णरूप्ययोः शोधनः परः। नीबूके रसमें घोटकर धूपमें सुखानेसे वह शुद्ध विषदोषहरो हृयो वातश्लेप्मविकारन्त ॥ और कार्योपयोगी हो जाता है। अपरो नीलकण्ठाख्यष्टङ्कण पूर्वटङ्कगात् । गेरु, कसीस, मुहागा कौड़ी, फिटकी, शङ्ख श्रेष्ठो नीलच्छवि:किञ्चिच्छोधनं तस्य पूर्ववत् । और कंकुष्ठकी शुद्धि भी इसी प्रकार होती है ।
टङ्कणको सौभाग्य (सुहागा ) टङ्कणक्षार (२२०४) टङ्कणशोधनम् (र.सा.सं.।उपरसा.) और धातुद्रावक कहते हैं।
आदौ टङ्कणमादाय काञ्जिकाम्ले विनिक्षिपेत् । सुहागा अग्निवर्द्धक, रूक्ष, कफनाशक और
एकरात्रात् समुदृत्य शोषयेद्वै निरातपे ॥ वातपित्तवर्द्धक है।
नरमूत्रगतं टङ्कं गवां मूत्रगतं तथा । अशुद्ध टङ्कण सेवन करानेसे वमन और
दिनान्ते तत्समुद्धृत्य जम्बीराम्बुगतं ततः ॥ भ्रान्ति होती है अत एव उसे शुद्ध अवश्य
जम्बीराम्लात्समुद्धृत्य नारिकेलस्य पात्रके। कर लेना चाहिए; और उसे शुद्ध करनेके लिए
मरीचचूर्णसंयुक्तं क्षालयेच्छीतलाम्बुना ॥
। एवं टङ्क समादाय सर्वरोगेषु. योजयेत् । केवल अग्नि पर फुला लेना पर्याप्त है।
टङ्गणोऽग्निकरो रूक्षः कफनो रेचनो लघुः॥
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