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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२२४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि AVRARAVIvn/AV/ (१९१६) चातुर्थिकारि रसः (१) सुखाकर आठ पहरकी अग्नि दीजिए। फिर स्वांग (वृ. यो त. । त. ६०) । शीतल होने पर गोले को निकाल कर पीस लीजिए। दरदः पारदश्चैव सितमल्लश्च तालकः। इसे १ रत्तीकी मात्रानुसार खांडमें मिलाकर समभागानि सर्वाणि गुन्द्रानीरेण मर्दयेत् ॥ | सेवन करने और दूध भात खानेसे चातुर्थिक ज्वर मुद्गमात्रां वटीं कृत्वा सितया शीतारिणा। नष्ट हो जाता है। गिलेचातुर्थिके योज्यं सय खिच्चडिकाघृतम् ॥ (१९१८) चातुर्थिकारि रसः (३) भक्षयेत्रिदिनं रोगी ज्वरःशाम्यति निश्चितम् ॥ । (र. सा. सं.; र. चं.; र. रा. सु. । ज्वर.) ___ शुद्ध शंगरफ़, शुद्ध पारद, शुद्र संखिया (सफेद) और शुद्र हड़ताल समान भाग लेकर हरितालं शिलां तुत्थं शङ्खचूर्णश्च गन्धकम् । सबको गोंदनीके रसमें घोटकर मूंगके बराबर | समांशं मईयेत्याज्ञाकुमारीरसभावितम् ॥ गोलियां बना लीजिए। शरावसम्पुटे कृत्वा पश्चाद्गजपुटे पचेत् । इन्हें मिश्रीमें मिलाकर ठण्डे पानी के साथ कुमारिकारसेनैव वल्लमात्रा वटीकृता ।। निगलने के बाद तुरन्त घृत युक्त (मूंगकी) खिचड़ी दत्वा शीतज्वरं हन्ति चातुर्थिक विशेषतः । मरिचघृतयोगेन तक्रं पीत्वा चरेद्वटीम् ॥ खानेसे ३ दिनमें चातुर्थिक ज्वर अवश्य नष्ट हो जाता है। एतया रमणं भूत्वा ज्वरस्तस्माद्विनश्यति ॥ (मात्रा १ गोली-ञ्बर आने के ३-४ . शुद्र हरताल, शुद्ध मनसिल, शुद्र तूतिया, घन्टा पूर्व ।) शंखका चूर्ण और गन्धक समान भाग लेकर घीकुमारके रसमें घोटकर टिकिया बना लीजिए और (१९१७) चातुर्थिकारि रसः (२) उन्हें सुखाकर सम्पुटमें बन्द करके गजपुट में फूंक (र. का. धे. । ज्वर.) दीजिए, तत्पश्चात् उसे धोकुमारके रसमें घोट कर पलद्वयं तालकस्मोन्मत्ताद्भिर्मदयेत् त्रिधा । वटभस्मार्मणे चूर्णमध्ये निक्षिप्य गोलकम् ।। १-१ वल्ल (२-३ रत्ती ) की गोलियां बना | लीजिए। शरावेण विमुद्रयाथ वहिर्यामाष्टकं भवेत् ।। इनके सेवनसे शीतज्वर और विशेषकर चातुतद् गुञ्जा खण्डसंयुक्ता दुग्धभक्ताशनेन च ॥ |र्थिक (चौथिया) ज्वरका नाश होता है । चातुर्थिकारिरपरो वमनावमनेन च ॥ ___२ पल (१० तोले) शुद्ध हरतालको धतूरेके | इन्हें स्याह मिर्च और घृतयुक्त तक्रके साथ रसकी ३ भावना देकर गोलाबना लीजिए और उसे सेवन करना चाहिए। सुखा कर १६ सेर बड़की राख के बीचमें (मिट्टी / (१९१९) चातुर्थिकारिरस (४) (भै.र.।ज्वर.) के हण्डेमें) रखकर उसके मुखको शरावसे ढक रसगन्धकलौहाभ्रहरिताल समांशिकम् । कर सन्धीको अच्छी तरह बन्द कर दीजिए, और | रसाईप्रमितं हेमं सर्व खल्लोदरे क्षिपेत् ॥ For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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