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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ८२ ] गुडूचीका काथ विमज्वर, रात्रिज्वर, जीर्णज्वर, तिजारी और चौथिया ( चातुर्थिक ) ज्वरका नाश करता है । www.kobatirth.org frates कामें सांका चूर्ण मिलाकर सेवन करनेसे कमर, पीठ, पैर, जंबा और उरु प्रदेशकी पीड़ा नष्ट होती है । भारत-भैषज्य रत्नाकरः । १०० पल ( ६ । सेर) गिलोय के चूर्णको घृत शहद और गुड़ में मिलाकर रखें इसे प्रतिदिन अग्नि लोचित मात्रानुसार सेवन करने और पथ्य पालनपूर्व रहने से जरा व्याधि, पलित, गृध्रसी, वातरक्क विषमज्वर और नेत्ररोग नहीं होते । यह प्रयोग रसायन, त्रिदोषनाशक और बुद्धिवर्धक है । हसको सेवन करने से मनुष्य पूरे १०० वर्ष तक १ दिनकी भांति जीवित रहता है । शरता निलमेघपड़के एक मास पर्यंत गिलोय के स्वरसको पीने और घृत, शहद तथा दूध, मूंगका यूष और मात खानेसे मनुष्य बलिपलित रहित, सर्व रोगमुक्त और वृक्षोंकी नवीन कोंपलोंके समान कान्तिमान हो जाता है । (१४८६) गोक्षुरकल्पः (ग. नि. । औ. क. २) अरिष्टपाषाणपथि श्मशान - जीर्णलाये गोक्षुरकं प्रजातम् । अपास्य सुक्षेत्र नदीतडाग गोष्ट समुपाददीत ॥ चूर्णीकृतं सान्द्रपटान्तपूत फलान्वितं गोक्षुरकं समूलम् । मथैनमत्यन्तविशुद्धकायः ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ गकारादि तिथौ प्रशस्ते पयसा लिहेत्तत् कर्णाभिवृद्धया द्विपलं तु यावत् । दिने दिने सार्धपलं तु नित्यं जीर्णे पयः षष्टिक भोजनश्च ॥ aagara कामं यः कुकुमानिव गोकुलेषु । कामकामः प्रमदा सहस्रं भजेदुदीर्णेन्द्रिय सर्वचेष्टः ॥ यां चापि गच्छेत्प्रमदां स वृद्धां हिमेन्दुगङ्गामलकुन्दकेशीम् । सा चापि कौमारमुपैति भावं रूपान्विताऽथाप्सर सेव भाति ।। निकृष्ट पथरीले मार्ग, दमशान और पुराने खण्डहरों में उत्पन्न गोखरुका परित्याग करके नदी तड़ागादिके तटवर्ती उत्तम प्रदेशमें वायु, आकाश, कीचड़ आदि दूर होने पर शरद ऋतु में उत्पन्न सफलमूल गोखरु लेकर चूर्ण करके मोटे कपड़ें से छान लीजिए। For Private And Personal वमन विरेचनद्वारा शरीरशुद्विके पश्चात् प्रशस्त तिथि १ || कर्षकी मात्रासे दूधके साथ सेवन प्रारम्भ करें और प्रतिदिन १ कर्ष (१| तो.) बढ़ाते जायें, यहां तक कि २ पल (१० तोले ) मात्रा तक पहुंच जाए | औषध पचने पर साठी चावल और दूधका आहार करें । इस प्रकार आठ दिन तक यह प्रयोग करने से ater अत्यधिक प्रबल हो जाती है । इस प्रयोगका प्रयोगी यदि किसी वृद्धाके साथ रमण करता है तो वह भी अपसरा समान रूप लावण्ययुक्त प्रतीत होती है । इति गकारादिकल्पप्रकरणम्
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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