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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - कल्पप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [८१] एवं कल्पो विधातव्यो सुखं जीवितुमिच्छभिः। कषायश्च्छिन्नरोहाया निहन्याद्विषमज्वरम् । अमृतायाःशिवः सौम्यो धमृतोपमलाभदः ॥ रात्रिज्वरं ज्वरं जीर्ण तृतीयकचतुर्थको ॥ मकरध्वज (अथवा रस सिन्दूर) और गिलोयका सत समान भाग लेकर एकत्र खरल करके निःक्काथोऽमृतवल्लयास्तु शुण्ठीचूर्णसमन्वितः । उसे संभलके रसकी ५० भावना दे लीजिए। पीतो हन्ति कटीपृष्ठपादजोरुजां रुजम् ।। ___ इसे प्रतिदिन प्रातःकाल ८ माशेकी मात्रानुसार सेंभलके रसके साथ सेवन करनेसे ३ मास के अमृतायाः पलशतं चूर्णीकृत्य तुलाधृतम् । पश्चात् बाल भौं रेके समान काले हो जाते हैं, ६ घृतक्षौद्रगुडं चाथ सर्वमेकत्र संलिहेत् ।। मासके सेवनसे शरीर अजर अमर और १० मास यथाग्न्यभ्यवहारस्तु नरो हितमिताशनः । पर्यन्त सेवन करनेसे रूप कामदेवके समान सुन्दर नास्थकश्चिद्भवेद्याधिन जरा पलितं न च ॥ हो जाता है, तथा १ वर्ष पर्यन्त सेवन करनेसे न गृध्रसी न घातामृङ् न चैव विषमज्वरः । न च नेत्रगता रोगा परं चैतद्रसायनम् ॥ शरीरके समस्त धातुओंकी वृद्धि होती है। मेधाकर त्रिदोषघ्नं, प्रयोगादस्य बुद्धिमान् । सुखाभिलाषी यथेच्छाहार विहारी बुद्धिमान् ! मनुष्यको इस अमृतके समान लाभदायक, और जीवेद्वर्षशतं पूर्ण यथैकं दिवसं तथा ॥ सौम्य अमृताकल्पका व्यवहार करना चाहिए। स्वरसममृतवल्लया यः पिपेन्मासमेकम् प्रयोगकालमें तीक्ष्ण पदार्थ, मद्य, क्षार और परिसृतघृतभक्षः क्षीरयूषौदनाशी । लवणका परित्याग करके तक अथवा दुग्धाहार | वलिपलितविहीनः सर्वरोगैर्विमुक्तो करना चाहिए, एवं भूमिमें शयन करना चाहिए तरुरिवनवपत्रः स्नेहकान्तिर्विभाति ॥ और स्वच्छ चित्त, सन्मित्रयुक्त, भक्तवत्सल, सत्य गिलोयके, अंगूठेके पोरवे ( पर्व ) के समान धर्म परायण, निश्चिन्त, निर्विकार, और ब्रह्मचर्य पालनपूर्वक रहना चाहिए। भोटे और बड़े टुकड़े करके धीमें भून लें और ( नि औषधिकया। उनमें से सात या नौ टुकड़े रोज़ खा लिया करें, तामष्ठपर्वमात्रां गुडूची परिकल्पिताम् । एवं इच्छानुसार आहार विहार करें । इस प्रयोगसे खण्डानि सर्पिषा भृष्टा खादेत्सप्त नवाथ च॥ तृष्णा, भ्रम, श्वास, कास शूल और कम्पनका नाश पुनः पुनः प्रतिदिनं यथेष्टाहारचेष्टितम् ।। होता है। जयेतृष्णां भ्रमं श्वासं सकासं शूलवेपथुम् ॥ ___ गुडूचीके काथमें अरण्डीका तेल मिलाकर पिबेन्नरोऽपि तत्काथमेरण्डस्नेहयोजितम् । । पीनेसे गृध्रसी, उदार्त और वातरक्त का समूल जयेद्गृध्रस्युदावर्त्त वातरक्तमशेषतः ॥ नाश हो जाता है। १ भा० ११ For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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