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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ४४२ ] (२६३९) तालकादिवटी ( र. चं; वृ. नि. र. । शीतपित्ता. ) तालं रसेनाष्टगुणं जयां च विमर्थ यत्नागुटिका गुडेन । निवध्य तां सेवय मासयुग्मं त- भैषज्य - www.kobatirth.org भारत - रत्नाकरः दिनोदये स्पर्शविकारनुत्यै ॥ शुद्ध व हरताल ८ भाग, रससिन्दूर और भांगका चूर्ण १ - १ भाग लेकर सबको अच्छी तरह खरल करके ( समान भाग) गुड़ में मिलाकर गोलियां बनालें । इन्हें दो मास तक प्रात: काल सेवन करने से कुष्टरोग नष्ट होता है 1 ( मात्रा ४ रत्ती । अनुपान उष्णजल | ) (२६४०) तालकेश्वररसः (१) (वै. रह. । कुष्ट) पलाशजटावल्कलं संशोष्य भस्म कारयेत् तद्भस्म पञ्चविंशतिपलपरिमितं तन्मध्ये प्रकृष्टतालकम् पञ्चविंशतिमाषकपरिमितं खण्डशः कारयित्वा भस्मना सह मिश्रयेत् । नूतनहण्डिकायां दृढं यथास्यादेवं रक्षयेत्; हण्डिको परि शरावं दत्वा विना मुद्रां चुल्ल्यां स्थापयेत्, यामदशकपर्यन्तं हठाग्निना दाहयेत्; सम्यग्दग्धं ज्ञात्वा वस्त्रपूतं कारयेत् । तद्भस्म रक्तिकाद्वयपरिमितमदग्धजीरकचूर्णमाषं परिमितमेकीकृत्य पर्णखण्डेन सह भक्षयेत् । शीतलजलमनुपाययेत् पथ्यं चणकचूर्ण चणकरोटिकां भर्जितचणकं वा दापयेत् । एवं मण्डलपर्यन्तं बहुवातातपो वर्जयेत्: तदाष्टादश कुष्ठविविधवातशोणितविविधत्रणप्रमेह पिडिकामवातव्याध्यादीन्नाशयेत् । अनुभूतोऽयं प्रयोगः || [ तकारादि पलाश (ढाक) की सूखी हुई छाकी भस्म २५ पल (१२५ तोले) लेकर कपर मिट्टी की हुई हाडी में इसमें से आधी भस्म भरकर उसपर २५ माशे (३१ । माशे - २॥ तोले लगभग ) शुद्ध वर्की हरतालके टुकड़े रखकर ऊपर से शेष भस्म भरकर उसपर शराव ढक दें और उसकी सन्धिको बन्द किये बिना ही चूल्हेपर चढ़ाकर दश पहर तीव्राग्नि पर पकाएं, तत्पश्चात् हाण्डीके स्वांगशीतल होनेपर उसके भीतर से हरतालको निकालकर पीसकर कपर छन करके रक्खें । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir इस भस्ममेंसे २ रत्ती लेकर १ माशे बिना भुने जीरके चूर्ण में मिलाकर पान में रखकर खिलाएं और ऊपरसे ठण्डा पानी पिलाएं । पथ्यमें केवल भुने चनेका आटा, चनेकी रोटी और भूने हुवे चने दें, और अधिक वायु तथा धूपादिसे परहेज़ कराएं । इस प्रकार इसे ४८ दिन तक सेवन करने से १८ प्रकारके कुष्ठ, वातरक्त, अनेक प्रकारके ब्रण, प्रमेह पिडिका और वातव्याधि आदि रोग नष्ट होते हैं । यह प्रयोग अनुभूत है । ( २६४१) तालकेश्वररसः (२) ( र. र. स. । उ. खं. अ. २० ) मूत्रं गवां षोडशभागमानं निधाय भाण्डेऽथ पिधाय तस्मिन् । दीपानिना तत्परिशोष्य सर्व मूत्रं ततस्तालकशुद्धता स्यात् ॥ वीर्य पुरा रेरिह नागतुल्यं भागद्वयं चाप्यथ तालकस्य । शुद्धेन नागेन रसो विशुद्धो विमर्दनीय हरितालकञ्च ॥ For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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