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रसपकरणम् ] द्वितीयो भागः।
[ १२५] गहनानन्दनाथेन भाषितेयं रसायने । यामाधै गोलकं स्वेद्यं मन्देन पावकेन च । ग्रहणीगजेन्द्रसंज्ञेयं श्रीमता लोकरक्षणे ॥ शीते जयारससमं शाल्मलीविजयाद्रवैः ॥ ग्रहणी विविधां हन्ति ज्वरातिसारनाशिनी। भावयेत्सप्तधा वज्रकपाटःस्याद्रसोत्तमः। शूलगुल्माम्लपित्तांश्च कामलां च हलीमकम् । माषद्वयं त्रयं वास्य मधुना ग्रहणीञ्जयेत् ॥ बलवर्णाग्निजननी सेविता च चिरायुषे ।। शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, जवाखार, जयन्ती, कण्डू कुष्ठं विसर्पश्च गुदभ्रंशं कृमिञ्जयेत् ॥ बच, अम्रक भस्म और सुहागेकी खील बराबर माषद्वयां वटी खादेच्छागीदुग्धानुपानतः। बराबर लेकर प्रथम पारे गन्धकको धोटकर कजली वयोग्निबलमावीक्ष्य युक्त्या वा त्रुटिवद्धन ॥ बना लीजिए, तत्पश्चात् उसे ३ दिन तक जयन्ती,
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म, शंख भांगरा और जम्बीरी नीबूके रसमें धोटकर गोला भस्म, सुहागेकी खील, हींग, कचूर, तालीसपत्र, बना लीजिए और उसे (पानों में लपेटकर) हांडी नागरमोथा, धनिया, जीरा, सेंधा, धायके फूल, में रखकर आधा पहर तक मन्दाग्निसे स्वेदित अतीस, सोंठ, घरका धुवां, हर्र, शुद्ध भिलावा, तेजपात, कीजिए और फिर स्वांगशीतल होजाने पर निकाल जायफल, लौंग, दालचीनी, इलायची नेत्रबाला, कर जया, संभलकी जड़ और भांगके रसकी ७-७ बेलगिरी और मेथी समान भाग लेकर प्रथम पारे भावना दीजिए। गन्धककी कजली कर लीजिए तत्पश्चात् उसमें यह “ग्रहणी वज्र कपाटरस' २-३ माशेकी अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर इन्द्रजौके काथमें
मात्रानुसार शहदके साथ सेवन करनेसे ग्रहणी घोटकर गोलियां बना लीजिए ।
रोगको नष्ट करता है। ___ श्री गहनानन्दनाथ कथित यह " ग्रहणी (१६११) ग्रहणीवनकपाटरसः(र.का.धे.प्र.) गजेन्द्र वटिका " २ माघे या अग्नि बलानुसार
रसभस्माभ्रकं गन्धं टङ्कणविजया वचा । न्यूनाधिक मात्रानुसार बकरीके दृधके साथ सेवन यवक्षारं समं सर्व मर्दयेन्मार्कवद्रवैः॥ करनेसे अनेक प्रकारका ग्रहणीरोग, ज्वरातिसार, जीरकस्य रसैमी दिनैकं तं च गोलकम् । शूल, गुल्म, अम्लपित्त, कामला, हलीमक, कण्डू शोषयित्वा पचेलोहपात्रे दण्डचतुष्टयम् ॥ ( खाज ), कुष्ठ, विसर्प, गुदभ्रंश और कृमिका नाश शनैस्तु तं समांशेन क्षिप्त्वा मोचरसं नवम् । होता है एवं बल, वर्ण, अग्नि और आयुकी वृद्धि भावयेद्विजयाद्रावैःसप्तधा धर्मरक्षितम् ।। होती है।
माषद्वयमितां मात्रां लिहेन्माक्षिकसंयुताम् ॥ . (१६१०) ग्रहणीवज्रकपाटरसः
___ शुद्ध पारद, अभ्रक भस्म, शुद्र गन्धक, (र. सा. सं. । ग्र.)
सुहागेकी खील, भांग, बच और जवाखार समान मूतं गन्धं यवक्षारं जयन्त्युग्राभ्रटङ्कणम्।। भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बना जयन्तीभृङ्गजम्बीरद्रवैः पिटवा दिनत्रयम् ॥ । लीजिए तत्पश्चात् अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला
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