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मिश्रप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
[१२९]
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१६२४) ग्रहणीरोगे पथ्यादिः लघुना पञ्चमूलेन पञ्चकोलेन पाठया। ( च. सं. । चि. अ. १८)
अन्नानि कल्पयेद्विद्वान् बिल्ववृक्षाम्लदाडिमैः। पलाशं चित्रकं चव्यं मातुलुङ्गहरीतकीम् । पिप्पली पिप्पलीमूलं पाठां नागरधान्यकम् ॥
ग्रहणीदोषिणां तक्रं दीपनं ग्राहिलाघवात् । कार्षिकाण्युदकप्रस्थे पक्त्वा पादावशेषितम् ।।
| पथ्यं मधुरपाकिसान च पित्तप्रदूषणम् ।। पानीयार्थ प्रयुञ्जीत यवागू तैश्च साधिताम् ॥ कषायोष्णविकाशित्वाद्रूक्षत्वाच्च कफे हितम् । शुष्कमूलकयूषेण कौलत्थेनाथवा पुनः।।
वाते स्वाद्वम्लसान्द्रत्वात्सयस्कमविदाहि तत् ॥ कट्वम्लक्षारतीक्ष्णेन लघून्यन्नानि चाप्नुयात् ।। कैथ, बेलगिरी, चांगेरी ( चूका-तिपतिया ) अम्लं चानु पिबेत्तकं तक्रारिष्टमथापि वा। तक और दाडिमसे सिद्ध यवागू आमको पचाती मदिरां मध्वरिष्टान् वा निगदं शीधुमेव वा और दस्तोंको रोकती है। ___ ढाककी हाल, चीता, चव, बिजौरा नीबू , हर्र, पीपल, पीपलामूल, पाठा, सोंठ और धनिया १-१ ।। ग्रहणी रोगमें लघुपञ्चमूल (शालपर्णी, कटेली, कर्ष ( १ तोला ) लेकर १ प्रस्थ ( ८० तोले) कटेला और गोखरु ) अथवा पञ्चकोल ( पीपल, पानीमें पकाकर चतुर्थांश शेष रहने पर छान पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ )या पाठा अथवा लीजिए। ग्रहणी रोगमें पीनेके लिए यही पानी बेलगिरी इमलीं ओर अनारसे सिद्ध आहार देना देना चाहिए और यवागू आदि भी इसीमें पकाना चाहिए । चाहिए।
ग्रहणी रोगमें सूखी मूलीके कषाय अथवा तक लधु होनेके कारण दीपन और ग्राही कुलथीके कषायसे लघु अन्न बनाकर देने चाहिएं; है; मधुरपाकी होनेके कारण पथ्य है और पित्तको और भोजनके बाद अम्ल तक्र, तक्रारिष्ट अथवा कुपित नहीं करता । कषाय, उष्ण विकाशी, और सीधु पिलाना चाहिए।
रूक्ष होनेके कारण कफमें हितकारक है । ताज़ा (१६२५) ग्रहण्यामाहारकल्पना
तक मधुर, अम्ल, और स्निग्ध होनेके कारण वायु
नाशक और अविदाही है अत एव तक्र ग्रहणी (ग. नि. । प्र. रो. ३)
रोगकी सब अवस्थाओंमें प्रयुक्त किया जा सकता है। कपित्थबिल्वचाङ्गेरीतक्रदाडिमसाधिता। यवागूःपाचयत्यामं शकृत्संवर्तयत्यपि ॥
इति गकारादिमिश्रप्रकरणम्
भा० १७
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