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[३४२]
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
तकारादि
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इलायची, दालचीनी, तेजपात, सोंठ, हर्र, विडङ्ग पिप्पलीमूलं स्वजिकां निम्बचित्रकौ॥ बहेड़ा, आमला, बायबिडङ्ग, मुनक्का, हन्दी, दारु मूर्वाजमोदेन्द्रश्वान् गुडूची देवदारु च । हल्दी, नीमके पत्ते, पीपल, गिलोय, सौंफ, मेढा- कार्षिकं लवणानाञ्च पश्चानां पालिकान्पृथम्।। सिंगी, और पुराने साठी चावल, समान भाग तथा भागान्दनि त्रिकुडवे चततैलेन मूछितान् । मिश्री इन सबके बराबर लेकर चूर्ण बना लीजिए। अन्तमं शनैर्दग्ध्वा तस्मात्पाणितलं पिबेत् ॥
__ इस चूर्णको सेवन करने और शीतल पदार्थो सर्पिषा कफवाताझे ग्रहणीपाण्डुरोगवान् । का त्याग करनेसे दाद, रक्तकोप, पित्त, कुष्ट, अम्ल- प्लीहमूत्रग्रहश्वासहिक्काकासकृमिज्वरान् ॥ पित्त, खुजली, पामा, विस्फोटक, मण्डल इत्यादि शोषातिसारौ यक्ष्माणं प्रमेहानाहहृद्ग्रहान् । अनेकों रोग नष्ट होते हैं।
हन्यात्सर्वविषाणाञ्च क्षारोऽनिजननोवरः॥ (२३४९) त्रिफलाचूर्णम्
त्रिफला, मालकंगनी, चव, बेलगिरी, लोहचूर्ण, (वृ.नि. र.;.मा.; यो, र. । उरु.; वं. से. । आ. वा.) मांसरोहिणी, कुटकी, मोथा, कूठ, पाठा, हींग, लिह्याद्वा त्रिफलाचूर्ण क्षौद्रेण कटुकायुतम्। । जौकाक्षार, मुष्कक (घण्टापारुल-मोषा ) का क्षार, सुखाम्बुना पिबेद्वापि चूर्ण षड्धरणं नरः॥ मुलैठी, त्रिकुटा, वच, बायबिडंग, पीपलामूल, सज्जी,
हर्र, बहेड़ा, आमला और कुटकीके चूर्णको नीमकी छाल, चीता, मूर्वा, अजमोद, इन्द्रजौ, शहदके साथ चाटनेसे अथवा “षधरण" चूर्णको गिलोय और देवदारु १।-१। तोला, सेंधा, मन्दोष्ण पानीके साथ पीनेसे उरुस्तम्भ रोग नष्ट विडलवण, सामुद्रलवण, कालानमक, और काच होता है।
लवण ५-५ तोले लेकर सबको कूटकर थोड़ा (२३५०) त्रिफलाचूर्णम् (यो. चिं. । चूर्णा.) थोड़ा घी और तैल मिलाकर एक हांडीमें भर त्रिफला त्रपुषीवीजं सैन्धवन्तु शिलाजतु । दीजिए और उसमें ६० तोले दही मिलाकर उसके वद्धमूत्रे हितं चूर्ण नात्र कार्या विचारणा ॥ मुखपर शराव ढककर कपर मिट्टी कर दीजिए।
हर, बहेड़ा, आमला, खीरेके बीज, सेंधानमक जब कपरौटी सूख जाय तो हाण्डीको चूल्हे पर और शिलाजीत समान भाग लेकर चूर्ण बना चढाकर उसके नीचे (१ पहर तक ) मन्दाग्नि लीजिए।
जलाइये और फिर हाण्डीके स्वांगशीतल हो जाने इसके सेवनसे बद्धमूत्र खुल जाता है। पर उसके भीतरसे औषधको निकालकर पीस (२३५१) त्रिफलादिक्षार:
लीजिए। (च. सं. । चि. स्था. अ. १९; ग. नि. ग्रह. ) | इसे १। तोलेकी मात्रानुसार धीमें मिलाकर त्रिफलां कटभी चव्यं बिल्वमध्यमयोरजः। सेवन करनेसे कफ और वातज अर्श, ग्रहणी, पाण्ड, रोहिणीं कटुकां मुस्तं कुष्ठं पाठाञ्च हिङ्ग च ॥ तिल्ली, मूत्रावरोध, खांसी, स्थास, हिचकी, कृमि, यवमुष्ककयोक्षारं मधुकं त्र्यूषणं वचाम् । ज्वर, शोष, अतिसार, यस्मा, प्रमेह, आनाह,
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