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डकारादि रसपकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
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मोरपंखके अगले भागकी भस्म लेकर उसे भारंगी, दाह, तिल्ली, शूल, विषमज्वर, मूत्रकृच्छ्र, और धतूरा, गिलोय, बासा, कसौंदी, बकायन ( बन अन्य वातज, पित्तज तथा कफज रोगोंका नाश निम्ब) चव्य, पीपलामूल, और चीतामूल के ५- होता है । ५ तोले स्वरसमें घोटकर गोलियां बना लीजिए। यह रस हिक्का तथा श्वास रोगमें विशेष इसके सेवनसे भयङ्कर हिक्का, खांसी, श्वास, ।
गुणकारी है। उदरविकार, पुराना प्रमेह, पाण्ड, यकृतोग, गलरोग, शोथ, मोह, नेत्ररोग, मुखरोग, राजयक्ष्मा, | (मात्रा-१ रत्तोसे २ रत्ती तक । साधारण पीनस, विषदोष, बलक्षय, गण्डमाला, वमन, भ्रम, J अनुपान शहद ।)
इति डकारादिरसमकरणम् ।
अथ तकारादिकषायप्रकरणम् । (२२०७) तगरमूलादियोगः (रा. मा.। वात.) | जलधरकृतमालश्चेतकीगोस्तनीभ्यां तक्रेण पिटं तगरस्य मूल
सह हरति कषायो मक्षु पानात्मलापम् ॥ मा निपीतं विनिहन्ति शीघ्रम् । तगर, असगन्ध, पित्तपापड़ा, शंखपुष्पी, शेफालिकामूलविनिर्मितो वा
देवदारु, कुटकी, ब्राह्मी, निर्गुण्डी, नागरमोथा, ____ काथो नृणां सन्धिकवातरोगम् ॥ अमलतास, छोटी काली हर्र और मुनक्का। इनका
सगरकी गीली (ताजी) जड़को तकके साथ | काथ पीनेसे प्रलाप नष्ट होता है । पीसकर अथवा निर्गुण्डी (संभालु ) की जड़का (२२०९) तण्डुलीयकमूलप्रयोगः काथ बनाकर पीनेसे सन्धिवायु (गठिया) नष्ट
(यो. र. । विष.) होती है।
तण्डुलीयकमूलन्तु पीतं तण्डलवारिणा । (२२०८) तगरादिक्काथ
तक्षकेणापि दष्टं हि निर्विषं कुरुते नरम्॥ (यो. चि. । अ. ४; यो. र.। सन्नि.) ___ चौलाई की जड़को तण्डुल जल (चावलों के तगरतुरगगन्धापर्पटीशङ्खपुष्पी
पानी) के साथ पीसकर पीनेसे सर्पविष नष्ट त्रिदशविटपि तिक्ता भारती भूतकेशी। । होता है।
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