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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । रसप्रकरणम् ] (२७११) त्रिकट्वाद्यं लौहम् ( रखें. चि. । अ. ९; र. सा. सं.; र. र.; धन्वं.; र. रा. सुं । शोथ. ) त्रिकटुत्रिफलादन्तीमार्गत्रिमदशुण्डिभिः । पुनर्नवासमायुक्तैर्युक्तो हन्ति सुदुर्जयम् ॥ लौहः शोथोदरं स्थौल्यं मेदोगदमसंशयः ॥ त्रिकुटा, हर्र, बहेड़ा, आमला, दन्तीमूल, अपामार्ग ( चिरचिटे ) का पञ्चाङ्ग, नागरमोथा, चित्रक, बायबिडङ्ग, सोंठ और पुनर्नवा ( साठी) की जड़का चूर्ण समान भाग तथा शुद्ध लोहचूर्ण (या भस्म ) इन सबके बराबर लेकर एकत्र खरल करें । इसके सेवन से शोथोदर, स्थूलता और मेद रोग अवश्य नष्ट होता है । (मात्रा - ४-६ रत्ती । अनुपान दूध या छाछ ।) (२७१२) त्रिकत्रयाद्यं लौहम् (र. सा. सं.; धन्वं.; र. चं.; भै, र. र. रा. सुं । पाण्डु.) पलं लौहस्य कस्य पलं गव्यस्य सर्पिषः । सितायाश्च पलञ्चैकं क्षौद्रस्यापि पलन्तथा ॥ तोकं कान्तलौहस्य त्रिकत्रयसुभावितम् । ततः पात्रे विधातव्यं लौहे च मृन्मये तथा ॥ हविषा भावितञ्चापि रौद्रे च शिशिरे तथा । भोजनादौ तथा मध्ये चान्ते चापि प्रदापयेत् अनुपानं प्रदातव्यं बुद्धा दोषबलाबलम् । कामलां पाण्डुरोगञ्च हलीमकं सुदारुणम् || अम्लपित्तं तथा शुलं शूलञ्च परिणामजम् । कासं पञ्चविधं श्वासं ज्वरं प्लीहानमेव च ॥ अपस्मारं तथोन्मादमुदरं गुल्ममेव च । ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४७७ ] अग्निमांद्यमजीर्णञ्च श्वयथुञ्च सुदारुणम् ॥ निहन्तिनात्र सन्देहो भास्करस्तिमिरं यथा ॥ ५ तोले मण्डूर भस्म तथा १| तोला कान्त लोहभस्म लेकर दोनोंको त्रिकत्रय ( त्रिकुटा, त्रिफला, बायबिडङ्ग, मोथा और चीता ) के काथमें घोटकर उसमें ५ - ५ तोले गायका घी, शहद और मिश्री मिलाकर लोह या मिट्टीके पात्रमें भरकर दिनको धूपमें सुखावें और रातको चन्द्रमाकी चांदनीमें रक्खें । ( इसी प्रकार २१ दिन या कमसे कम सात दिन तक भावना देनेके पश्चात् ) तसे चिकने किये हुवे पात्र में भरकर रख दें । इसे यथोचित मात्रा और अनुपानके साथ भोजन आदि, मध्य और अन्तमें सेवन करनेसे कामला, पाण्डु, भयङ्कर हलीमक, अम्लपित्त, उदरशूल, परिणाम शूल, पांच प्रकारकी खांसी, श्वास, ज्वर, प्लीहा, अपस्मार ( मिरगी ), उन्माद, उदररोग, गुल्म, अग्निमांद्य, अजीर्ण और शोधका अत्यन्त शीघ्र नाश होता है । (२७१३) त्रिकत्रयाद्यं लौहम् ( र. सा. सं.; धन्वं. र. चं; २. । र उन्माद; रसे. चि. अ. ९ ) त्रिकत्रयसमायुक्तं जीवनीययुतन्तथा । हन्त्यपस्मारमुन्मादं वातव्याधिं सुदुस्तरम् ।। त्रिकुटा, त्रिफला, त्रिमद (नागरमोथा, बायबिडङ्ग, चीता) और जीवनीयगणे की ओषधियों का चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध लोहचूर्ण या लोह - भस्म सब बराबर लेकर एकत्र खरल कर लीजिए । १ जीवनीयगण - जकारादि क्वाथ प्रकरणमें देखिये | For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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