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मिश्रप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः ।
धीरे धीरे अन्न त्याग किया था उसी प्रकार धीरे | (२७९७) तण्डुलादिक्रुशरा धीरे तक कम करना और अन्नाहार बढ़ाना चाहिए ।
विधिवत् सेवन करनेसे तक तीनों दोषोंकी संग्रहणीका नाश करता है | परन्तु नियम विरुद्ध सेवन किया जाय तो वही कालकूट बिपके समान प्राणघातक भी है। इस लिए संग्रहणी रोग में तक अत्यन्त सावधानीपूर्वक सेवन करना चाहिए ।
संग्रहणी के लिए तकसे अच्छी अन्य कोई भी वस्तु नहीं है ।
तक सेवी मनुष्य कभी दुखी नहीं होता और न ही तक्रकेद्वारा नष्ट हुवे रोग पुनः उभरते हैं । जिस प्रकार देवताओंके लिए अमृत सुखकारी है उसी प्रकार संसार में मनुष्यों के लिए तक हितकारी है । (२७९६) तहरीतकी
( यो. र.; यो त । त. २२; वृ. यो त । त. ६७ ) त्रिकंसे deer fasaपटोः षष्टिरभयाः । पवेद्वयस्थ्यः सार्धं घृततिलजविश्वामिकुडवैः ॥ समावाप्याजाजीमरिचचपलादीप्यकपलैलिहां वद्रित विकारांश्च जयति ॥
उत्तम जातिकी ६० हर्र लेकर उनकी गुटली निकाल डालिये, फिर उन्हें १२ सेर तक में पकाइये और पऋते समय उनमें ४० तोले सेंधा नमक डाल दीजिए । जब हरीतकी गल जायं और अवलेहके समान पाक हो जाय तो उसे अनसे नीचे उतारकर उसमें २०-२० तोळे धी, तिलका क्षार तथा सोंठ और चीतेका चूर्ण, और ५-५ तोले जीरा, स्याहमिर्च, पीपल और अजवायनका चूर्ण मिला दीजिये |
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इसके सेवन से अग्नि दीप्त होती है (मात्रा - १ तोला । अनुपान जल | ) भा० ६५
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[ ५१३ ]
( हा. सं. । स्था. ३ अ. ६ ) तण्डुलारक्तशालीनां भागद्वयेन धीमता । भृष्ट्वा तिलांश्च सङ्कव्य तदर्धेन विमिश्रितान् ।। भृवा तत्समं मुद्राश्चं चैकीकृत्वा तु साधयेत् । सिद्धां च कृशरां सम्यक् घृतेन सह भोजयेत् ॥ एकान्तरतं यस्तु तीव्रानिस्तस्य नश्यति ||
लाल शाली चावल २ भाग, तथा तिल और मूंग १-१ भाग लेकर तीनोंको पृथक् पृथक् मन्दाग्नि पर भून लीजिए, फिर तिर्लोको थोड़ा कूटकर तीनों चीजोंको एकत्र मिलाकर रखिये ।
हर तीसरे दिन इसकी खिचड़ी बनाकर उसमें घी डालकर खानेसे भरमक रोग शान्त होता है । (२७९८) तण्डुलाम्बुसेकः (ग.नि. | मसू.) पाददाह प्रकुरुते पिटिका पादसम्भवा । तत्र सेकं प्रशंसन्ति बहुशस्तन्दुलाम्बुना ||
यदि मसूरिका में पैरोंमें फुंसियां निकलें और उनमें दाह हो तो उनपर बार बार चावलों का पानी ( धोवन ) डालना चाहिये । (२७९९) तर्कार्यादिनिषेचनम्
( ग. नि. । ऊरुस्त. २१ ) तर्कारीविल्व सुरसाशिश्रवत्सक निम्बजैः । पत्रमूलफलैस्तोयं शृतमुष्णं निषेचनम् ||
ऊरुस्तम्भ रोग में रोगस्थानपर अरणी, बेल, तुलसी, सहजना, कुड़ा और नीमके पत्र, मूल और फलोंसे पके हुवे पानीके तरैड़े देने चाहिएं । (२८००) ताक्ष्योऽगदः
(सु. सं. । क. अ. ५. वं. से. । विष; आ. वे. वि. । अ. ८२ )
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प्रपौण्डरीकं सुरदारु मुस्ता कालानुसार्या कटुरोहिणी च ।