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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२००] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ चकारादि निष्क और जभाल गोटा २० निष्क लेकर सबको (१८७३) चण्डभैरवो रसः खरलमें डालकर संभालुके रसमें धोटकर मंगके (र. र. । उन्मा.) बराबर गोलियां बना लीजिये। हेमपादं मृतं मूतं निष्कं खल्वे विमर्दयेत् । इनमेंसे १-१ गोली गुड़में मिलाकर खि शोभाञ्जनं विषं तुल्यं मर्यश्च त्रिशूलीद्रवैः ।। लानेसे पाण्डु, सूजन, उदररोग, बवासीर, गुल्म, देवदाल्यावैश्चाहि तन्दोलं पाचयेदिनम् । ति ली, जिगर, कृमि, पुराना ज्वर, मेह, मूत्रकृच्छ गन्धकोत्थेन तैलेन तत उद्धृत्य चूर्णयेत् ॥ पथरी, ब्रण (धाव) आदि अनेक रोगांका नाश वल्लै भक्षयेन्नित्यं पिबेद ब्राह्मीघृतं ह्यनु । होता है। सर्वभूतग्रहं हन्ति रसोऽयं चण्डभैरवः॥ (यह रस विरेचक है। बालक, वृद्ध, गर्भिगी ___स्वर्ण भस्म ४ निष्क (२० मासे ), रस और निर्बलको न देना चाहिये । ) सिन्दूर ( पारदभस्म) १ निष्क, सहजनेके बीज (१८७२) चण्डभैरवः (भै. र.; धन्वं.।अपस्मा.) और मीठा तेलिया ५-५ निष्क लेकर १ दिन मृतसूतार्कलौहश्च ताल गन्धं मन शिला। गोखरु और देवदाली ( विन्दाल) के रसमें रसाञ्जनश्च तुल्यांशं गोमूत्रेणापि मर्दयेत् ॥ घोटकर गोला बना लीजिए। इस गोलेको १ तं गोलं द्विगुणं गन्धं लोहपात्रे क्षणं पवेत् । दिन गन्धकके तैल में पकाकर चूर्ण कर लीजिए। पश्चगुञ्जामितं भक्ष्यमपस्मारहरं परम् ॥ इस 'चण्ड भैरव' रसको २-३ रत्तीको हिङ्गसौवर्चलं कुष्ठं गवां मूत्रेण सर्पिषा। | मात्रानुसार " ब्राहगीत" के साथ सेवन करनेसे कर्षमात्रं पिबेच्चानु रसेऽस्मिंश्चण्डभैरवे ।। । सर्व भूत ग्रह नष्ट होते हैं । पारदभस्म (अभावमें रस सिन्दूर), ताम्रभस्म, हरिताल, गन्धक, मनसिल और रसौत बराबर । (१८७४) चण्डभैरवो रस: बराबर लेकर गोमूत्रमें घोटकर गोला बना लीजिए (र. का. धे. । कु. ) और उसके ऊपर नीचे उससे दो गुना गन्धक द्विपलं मूतकं शुद्धं पलमङ्कोलबीजकम् । रखकर लोहेके पात्रमें थोड़ी देर तक (गन्धक जल चत्वारःकान्तभस्मोत्थाःशुद्धगन्धात्पलानिदश ॥ जाने तक) पकाइये। मृताभ्रं मूततुल्यं स्यात् त्रिफलं कृष्णजीरकम् । इसे ५ रतीको मात्रानुसार सेवन करने से सबै भृङ्गद्रवैर्मथै दशाहं खल्वके दृढम् ॥ अपस्मार ( मिर्गी ) रोग नष्ट होता है। तिलतैलन्तु सर्वांशं तैलांशम् भृङ्गजद्रवम् । अनुपान-हींग, सौंचल ( काला नमक ) सर्व मृद्वग्निना पाच्य पिण्डितं स्निग्धभाण्डके।। और कूठका समभाग मिश्रित एक कर्ष (१। सप्ताहं धान्यराशिस्थं समुद्धत्य विनिक्षिपेत् । तोला ) चूर्णं गोमूत्रमें मिलाकर उसमें धृत डाल तुल्यं कृष्णाङ्कलीबीजं तिलपिण्याकसंयुतम् ॥ कर रस खाने के पश्चात् पीना चाहिए। भक्षयेन्निष्कमात्रन्तु रसोऽयं चण्डभैरवः । For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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