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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अञ्जनप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ३९१ ) नवीन नेत्राभिष्यन्द ( आंख दुखना ) नष्ट घोटकर गोला बनाइये, तत्पश्चात् उसे सम्पुटमें होता है। बन्द करके गजपुटमें फूंक दीजिए । जब पुट ( रस ४ भाग, शहद १ भाग) : स्वांग शीतल हो जाय तो उसमेंसे औषध निकाल (२५३०) ताम्रातिः ( अञ्जनम् ) कर उसमें ५ माशे गन्धक मिलाकर घोटिए और (र. र. स. । उ. ख. अ. २३ ) फिर उसे तांबेकी कढाइमें डालकर आगपर चढ़ा शुल्वं गन्धकमभ्रकं च दीजिए; जब गन्धक जल जाय (धुंवां निकलना रसकं दिक्संख्यनिष्कं पृथक् । बन्द हो जाय ) तो फिर ६ माशे गन्धक डाल सर्व रुद्रजटारसेन बहुशो दीजिए और साफ करछी आदिसे चलाते रहिए । भृगस्य सारेण वा ॥ इसी प्रकार १०० बार ५-५ माशे गन्धक डाल मायःश्लक्ष्णतरं सुमर्दित कर जलाइये और अन्तिम बार जब वह ठण्डा हो मिदं सम्यक् पुटं कारयेत् । जाय तब उसमें १ सेर पानी डालकर अच्छी तरह स्थाल्यां तत्पुनरेव शीतल विलोडन कीजिए और फिर पानीको नितरने मिदं विन्यस्य तस्यान्तरे ॥ दीजिए । जब पानी नितर जाय तो उसे धीरे निष्कं निष्कमनन्तरं परि धीरे उतार लीजिये और उस पानीमें १। तोला पचेज्जीर्ण तथा गन्धकम् । | नीला थोथा और १। तोला सुरमा मिलाकर कांसीके । पात्रमें धूपमें सुखाकर सुरक्षित रखिए । स्यादेवं शतनिष्कमात्र । इसे आंखमें आंजनेसे समस्त नेत्ररोग नष्ट मसकृतद्भस्म शीतं ततः ॥ होते हैं। प्रस्थेनोन्मितवारिणा (२५३१) ताम्रद्रुतिः ( अञ्जनम् ) विलुलितं कल्कं विना गालितम् । (र. र. स. । उ. । ख. अ. २३ ) संगृयाम्बुतदन्तरे शिखि आलकुचभृङ्गाणां रसपिष्टेन कस्यचित् । निभं तुत्थं सुचूर्णीकृतम् ॥ गन्धकेन समांशेन प्राग्वत्तानं च मारितम् ॥ कर्षांशांशितमञ्जनं विनि ताम्राभ्रकं च तुत्थं च दशनिष्कं पृथक् पृथक् । हितं कांस्ये परं शोपयेत् । | कन्दुकस्थमिदं त्रिंशत्कर्ष चूर्णितं गन्धकम् ।। तां ताम्रगुतिमामनन्ति दत्त्वाल्पशोऽमिनाल्पेन रुध्वाधूमं विसर्जयेत्। निखिलान्नेत्रामयान्नाशयेत् ॥ प्रस्थाम्बुमर्दितस्पास्य प्रासादं निःसृतं युतम् ।। ताम्रभस्म, गन्धक, अभ्रकभस्म और खपरिया तुत्थनोरशिलाजाभ्यां कर्मशाभ्यां विशोषयेत् । १०-१० निष्क ( प्रत्येक ४ तो. २ माशे ) ताम्रतिरिय साज्यमानुषीक्षीरमाक्षिकात् ॥ लेकर सबको रुद्रजटा अथवा भंगरेके रसकी २१ काचार्मपिल्लाभिष्यन्दव्रणशुक्रपणाशिनी । अथवा ततोऽधिक भावनाएं देकर और खूब । तत्किटं दद्रुकिटिभं लेपात्पामादिकं जयेत् ।। For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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