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अञ्जनप्रकरणम्]
द्वितीयो भागः।
[७७ ]
निर्मलीके बीज, सेंधानमक, शुद्ध नीलाथोथा, (१४६३) गुटिकाञ्जनम् (सु०सं.उत्तर.अ.१९) रसौत, सोंठ, मिर्च, पीपल, फिटकरीकी खील, नागर व्योषं पलाण्डु मधुकं लवणोत्तमञ्च । मोथा, कौड़ीभस्म, तीनों नमक (सेंधा, काला नमक, लाक्षाञ्च गैरिकयुतां गुटिकाञ्जनं वा ॥ सांभर नमक ) ताम्रभस्म, लोहमम्म, कपूर, मांस ___ सोंट, मिर्च, पीपल, प्याज, मुलैठी, सेंधानमक, रोहिणी, समुद्रफेन; बच, मनुष्यको कपालास्थि, लाख और गेरु समान भाग लेकर महीन पीसकर सीसाभस्म, पारद, हैड,बहेड़ा, आमला और मुलैठी (पानी की सहायतासे) गोलियां बना लीजिए। सबका महीन चूर्ण करके करञ्ज (करञ्जवे ) के इन्हें आंखमें आंजनेसे कुकूणक रोग नष्ट स्वरसमें घोटकर अञ्जन तैयार कर लीजिए। होता है। यह अञ्जन दृष्टिको गरुड़की दृष्टिके समान
(१४६४) गुटिकाञ्जनम् तीक्ष्ण कर देता है।
__(वै. र. । ने. रो., वृ. यो, त. । त. १३१) (१४६१) गिरिकर्ण्याक्षिपूरणम्
पिप्पलीत्रिफलालाक्षालोध्रसैन्धवसंयुतम् । (रा. मा. । ने. रो.)
भृङ्गराजरसे घृष्टं गुटिकाञ्जनमिष्यते ॥ श्वेताद्रिकर्ष्याः सपुनर्नवाया
अर्म सतिमिरकाचं कण्डूशुक्रं तथार्जुनम् । मूलैः प्रपिटैर्यवचूर्णयुक्तैः।
अञ्जनं नेत्रजान्रोगान् निहन्त्येतन संशयः ॥ विलोचनपूरितमम्बुयुक्तै
पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, लाख, लोध विमुच्यते पुष्पकृतोपसर्गात् ॥
और सेंधा नमक के महीन चूर्णको भंगरेके रसमें सफेद कनेर और पुनर्नवाकी जड़ तथा जौ
घोटकर गोलियां बना लीजिए। को पानीमें पीसकर आंखमें डालनेसे पुष्प (फूला)
इन्हें ( पानीमें पीसकर ) आंखमें आंजनेसे नष्ट होता है।
अर्म, तिमिर, काच, खुजली, 'फूला और अर्जुनादि (१४६२) गुञ्जामूलाञ्जनम्
नेत्र रोग अवश्य नष्ट हो जाते हैं।
। (१४६५) गुटिकाञ्जनम् (च.द. नेत्ररोग. ५८) (ग. नि., रा. मा., यो. र. । नेत्ररो.)
नलिनोत्पलकिञ्जल्कं गोशकृद्रससंयुतम् । गुञ्जामूलं बस्तमूत्रेण पिष्टं
गुडिकाञ्जनमेतत्स्यादिनरात्र्यन्धयोहितम् ।। निघृष्टा वा वारिणा भद्रमुस्ता ।
कमलकेसरको गायके गोबरके रसमें पीस आन्ध्यं सद्यस्तैमिरं हन्ति ।
'कर गोलियां बना लीजिए। इन्हें (पानीमें घिसकर) पुंसामत्युद्धादं नेत्रयोरञ्जनेन ॥
आंखमें आंजनेसे दिवान्ध्य और नक्तान्ध्य (रतौंधा) गुञ्जा (चौंटली)की जड़को बकरेके मूत्रके | नष्ट होता है। साथ अथवा नागर मोथेको पानीके साथ घिसकर (१४६६) गुटिकाजनम् (भै. र. । नेत्र.) अञ्जन लगानेसे अत्यन्त प्रवृद्ध तिमिर और आन्ध्य गैरिकं सन्धवं कृष्णा तगरश्च यथोत्तरम् । रोग नष्ट होता है।
पिष्टं द्विरंशतोऽद्भिर्या गुडिकाञ्जनमिष्यते ॥
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