SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसप्रकरणम् ] शुद्धं सूतं मारितं तत्त्रिभागं खल्वे सर्वे मदितं वासरैकम् ॥ सर्व योज्य हारि शृङ्गकेऽपि लेप्यं मृत्स्ना वाससा वेष्टितं च । वाराहाख्ये तत्पुटे गर्त्तमध्ये आरण्यैर्वै गोमयैः पाचयेद्धि || द्वितीयो भागः । उत्तार्यैनं स्वाङ्गशीतं प्रकुर्यात् खल्वे धृत्वा मर्दयेत्तं सुवैद्यः । पश्चादेनं रसेनाथ सम्यक् भृङ्गाह्वया भावयेत्सप्तवारान् ॥ चूर्ण दत्वा लोप्रमुस्तामदाह्न - च्छिना पाठा शक्रबीजोद्भवञ्च । कापित्थैर्वा स्वरसैः सुभृतैर्वा भाव्यं स त्रीणि वाराणि सम्यक् ॥ सम्यक शुष्कं गालितं वत्रखण्डे माषं चैकं लेहितं माक्षिकेण । कृष्णा चूर्णैर्माषयुग्मैश्च युक्तं हन्याच्चायं ग्रहणीं त्रिदोषजां वै ॥ चांदी भस्म, सोना भस्म, सोना मक्खी भस्म, और लोह भस्म एक एक भाग गन्धक २ भाग, पारदभस्म, ( रससिन्दूर ) ३ भाग लेकर सबको १ दिन अच्छी तरह खरल करके हरिणके सींगमें भर दीजिए और उसके ऊपर कपड़े मिट्टी करके अरने उपलों में वराहपुटमें फूंक दीजिए । तत्पश्चात् स्वाङ्ग शीतल होने पर निकालकर चूर्ण करके उसे भांगके स्वरसकी ७ भावना दीजिए और फिर उसमें लोध, मोथा, कस्तूरी, गिलोय, पाठा और इन्द्रजौका चूर्ण एक एक भाग मिलाकर कैथके [ ११७] स्वरस या काकी तीन भावना देकर सुखाकर कपड़े से छान लीजिए । इसे १ माशेकी मात्रानुसार २ मा. पीपलके चूर्ण और शहद में मिलाकर सेवन करने से त्रिदोषज संग्रहणका नाश होता है । (१५९४) ग्रहणीकपाटरसः (र.सा.सं.। ग्रह.) रसाभ्रगन्धान्क्रमवृद्धियुक्तान् जङ्गारसेन त्रिदिनं विमर्थ । जयन्ति भृङ्गलम्बिनी रे दिनं यवक्षारसटङ्कणश्च ॥ सिवा तु गन्धस्य च तुल्यभागं वातारितैलेन युतं पुटिखा । गुडूचिकाशाल्मलिकारसेन Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir जया रसेनापि विम शाणम् ॥ मरीचसार्द्ध मधुना समेतं ददीत पथ्यं दधिभक्तकच्च || शुद्ध पारद १ भाग, अभ्रक भस्म २ भाग और शुद्ध गन्धक ३ भाग लेकर सबको ३ दिन तक काकजंघा के रस में घोटकर १-१ दिन जयन्ती भांगरा और पौदीनेके रसमें घोटिये; तत्पश्चात् उसमें ३ - ३ भाग जवाखार और सुहागेकी खील मिलाकर अरण्डीके तैलमें घोटकर यथाविधि सम्पुट करके गजपुटमें फूंक दीजिए और फिर गिलोय, सेंमल, और भांगके रसमें पृथक् पृथक् खरल कर लीजिए । इसे ४ माशेकी मात्रानुसार ( २ तोला ) शहद और ( १ माशा ) पीपल के चूर्णके साथ सेवन करनेसे ग्रहणी रोग नष्ट होता है । पथ्य - - दही भात | For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy