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छकारादिकषायप्रकरणम् ]
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द्वितीयो भागः ।
छ
अथ छकारादिकषायप्रकरणम् ।
(वं. से.; वृं. मा.; ग. नि. च. द. । प्रमे.) छिन्नावह्निकषायं वा पाठाकुटजरामठम् । तिक्ता कुष्ठश्च सञ्चूर्ण्य सर्पिमेही पिवेन्नरः ॥
छिनाशिवापर्पटतोयदानात्
अहो ! पाराशरादि मुनिकथित अन्य कषायों की क्या आवश्यकता है? केवल गिलोय, सोंठ
(१९४६) छर्दिनिग्रहणो कषायदशकः (च. सं. । सू. स्था. अ. ४) जम्ब्वाम्रपल्लवमातुलुङ्गाम्लबदरदाडिम- और पित्तपापड़ाका काथ ही क्या पित्तज्वरको शान्त reeष्टिकोशीरमृल्लाजा इति दशेमानि छर्दि करनेके लिए पर्याप्त नहीं है ? निग्रहणानि भवन्ति ॥ २८ ॥ (१९४९) छिन्नादिकषायः (वृं. मा. । अम्ल.) छिन्नाखदिरयष्टयाहृदार्व्यम्भो वा मधुद्रवम् ।।
जामनके पत्ते, आमके पत्ते, विजौरा नीबू, बेर, दाडिम, जौ, मुलैठी, खस, मिट्टी (पीली मिट्टी) और धानकी खील। यह दश ओषधियां वमन (उल्टी - कै.) को रोकने वाली हैं । (१९४७) छिन्नादिकषायः
(अम्लपित्त की शान्तिके लिए) गिलोय, खैर, - मुलेठी, और दारूहल्दोका काथ शहद डालकर पिलाना चाहिए । (१९५०) छिन्नादिकाथः
गिलोय और चीतेका काथ अथवा पाठा, इन्द्रजौ, हींग, कुटकी और कूठके समान भाग मिश्रित चूर्णको पीने से सर्पिमेहको आराम होता है। (१९४८) छिन्नादिकषायः
(वै. जी. | वि. १; वृ. नि. र. । ज्वर. ) अहो किमर्थ बहुभिर्कषायैः
पराशराद्यैर्मुनिभिःप्रदिष्टैः ।
पित्तज्वरः किं न सरीसरीति ॥
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( भा. प्र. म. खं । विस्को. ) छिन्नापटोल भूनिम्बवासकारिष्टपर्पटैः । खदिराब्दयुतैः काथो हन्ति विस्फोटकज्वरम् ।।
गिलोय, पटोलपत्र, चिरायता, बासा, नीमकी छाल, पित्तपापड़ा, खैर और मोथेका काथ विस्फोक ज्वरका नाश करता है ।
(१९५१) छिन्नादिकाथः (वैधामृत | अलं. ३ ) छिन्नाकिरातत्रिफलात्रियामा
तिक्तकषायो गुडसम्प्रयुक्तः ।
शिरः शिरोर्द्धश्रवणाक्षिदन्त
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लानि निहन्ति सद्यः ॥ ५१ ॥