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द्वितीयो भागः ।
कषायप्रकरणम् ]
(१२८८) गोधूम चूर्णम् (यो.र., वृ.यो.त. भग्न. चि.) ईप द्विदग्धगोधूमचूर्ण पीतं समाक्षिकम् । कटसन्धिषु भग्नेषु भग्नेष्वस्थिषु पूजितम् ।।
किञ्चिद्दग्ध ( अधजले ) गेहूं का चूर्ण शह दमें मिलाकर पीने से कमर, सन्धि और हड्डीके
में अत्यन्त हित करता है । (१२८९) गोधूमपार्थचूर्णम् (वं. मा . । ह.) तैलाज्यगुट विपकं चूर्ण गोधूमपार्थजं वाऽपि । पिवति पयोनु च सभवेज्जितसकलहदामयः पुरुषः ॥ गेहूं या अर्जुनकी छाल चूर्णको तेल, घृत और गुड़में पकाकर दूधके साथ सेवन करने से सर्व प्रकार के हृद्रोग नष्ट होते हैं । (१२९०) गोधूमादिचूर्णम्
( वृं. मा.; वृ. नि. र. ह. रोग ) गोधूमककुभचूर्ण छागपयोगव्यसर्पिषा पकम् । मधुशर्करासमेतं शमयति हृद्रोगमुद्धतं पुंसाम् ॥
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गेहूं और अर्जुनकी छाल चूर्णको बकरी के दूध और गायके में पकाकर ( टण्डा होनेपर) शहद और मिश्री मिलाकर सेवन करने से अत्यन्त प्रवृद्ध हृद्रोग भी नष्ट हो जाता 1 (१२९१) गोधूमादिचूर्णम् (बृ.नि.र. । स्नायु.) गोधूमशणवीजस्य चूर्ण ग्राह्यं समांशकम् । gauri गुडेनातं त्रिदिनात्स्नायुकापहम् ॥
गेहूं और सनके बीजांके, समान भाग चूर्णको धीमें पका कर गुड़ मिलाकर ३ दिन तक सेवन करनेसे स्नायु (नहरुआ ) नष्ट हो जाता है । (१२९२) गोमूत्रमण्डूरम् (वं. से.यो. र. शो.) गोमूत्रसिद्धमण्डूरं सुरभीरसभावितम् । माणका कन्दानां रसेष्वपि च भावयेत् !!
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[३१]
त्रिफला कटु चन्यानां चूर्ण पाणितलद्वयम् । निहन्ति सर्वजं शोफं सर्वाङ्गं च विशेषतः ||
गोमूत्र सिद्ध मण्डूरको तुलसी, मानकन्द और rash स्वरस की भावना देकर उसमें संभ भाग मिश्रित त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला) कुटकी और चयका चूर्ण (मण्डर के बराबर ) मिला लीजिए ।
इसे २ कर्ष की मात्रानुसार सेवन करने से सर्वदोषज और विशेषतः सर्वागगत शोष नष्ट होता है ।
(१२९३) गोमूत्रसिद्धमण्डूरम्
( च द । शूला. २६) गोमूत्रसिद्धं मण्डूरं त्रिफला चूर्णसंयुतम् । विहन्मधुसर्पिभ्यां शूलं हन्ति त्रिदोषजम् ।।
गोमूत्र सिद्ध (गोमूत्र में पक) मण्डर और हर्र, बहेड़ा तथा आमलेका चूर्ण समान भाग मिलाकर सेवन करने से त्रिदोषज शूल नष्ट होता है । (१२९४) गोमूत्र हरीतकीयोगः (वृ.वि.र.पां.) त्रिसप्ताहं गवां मूत्रैरभयां च विभावयेत् । एकैका भक्षिता नित्यं पाण्डुरोगविनाशिनी ॥
(पीटी-बड़ी) हैडको २१ दिन तक गोमूत्र में भिगोए रखनेके बाद नित्य प्रति १ हैड़ (पीस कर- उष्ण जलके साथ ) सेवन करनेसे पाण्ड रोग नम्र होता है ।
(प्र. वि. हैड़ों को गुठली रहित करके भिगोना चाहिए और प्रतिदिन नया गोमूत्र बदलते रहना चाहिए )
(१२९५) गोरोचनचूर्णम् ( र. र. । विप.) नृणां मृत्रेण संपिट गोपित्तमधुसंयुतः ।
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