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घृतप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः ।
[५३]
घृतं विपक्वं पिबतां प्रशस्तं
इस घृतके सेवनसे वातज कास नष्ट होती और वस्तु येषां विकलञ्च जल्पताम् ॥ । अग्नि प्रदीप्त होती है । गिलोय, अपामार्ग ( चिरचिटा) बायबिडंग, (१३६५) गुडूच्यादि घृतम् शंखाहोली (शंखपुष्पी), बच, शतावर. हैड़ और
(च० सं० । चि० स्था० अ० १२) सोंठके कल्कसे सिद्ध घृत वाणीकी विकलता गुडूचीं पिप्पली मूवी हरिद्रां श्रेयसीं वचाम् । (गदगद-हकलापन ) के लिए हितकर है। निदिग्धिकां कासमर्द पाठां चित्रकनागरम् ।। (१३६३) गुडूच्यादिघृतम् (सु.सं.। उत्त. ज्व.) जले चतुर्गुणे पक्त्वा पादशेषेण तत्समम् । गुडूचीत्रिफलावासात्रायमाणायवासकैः। सिद्धं सर्पिःपिबेद्गुल्मश्वासार्तिक्षयकासनुत् ॥ कथितैर्विधिवत्पकमेतैः कल्कीकृतैःसमैः॥ . गिलोय, पीपल, मूर्वा, हल्दी, हर्र, बच, कटेली, द्राक्षामागधिकाम्भोदनागरोत्पलचन्दनैः। कसौंदी, पाठा जलजमनी] चीता और सोंठ समान पीतं सर्पि.क्षयश्वासकासाजीर्णज्वराञ्जयेत् ॥ भाग मिश्रित १ सेर लेकर ८ सेर जलमें पकाएं _ गिलोय, हर्र, बहेड़ा आमला, बासा, त्राय- और २ सेर जल शेष रहने पर छानकर उसमें आध माणा (बनफशा) और जवासेके काथ तथा मुनक्का, सेर घृत मिलाकर घृत मात्र शेष रहने तक पकाइये। पीपल, नागरमाथा, सोंठ, नीलोफर और लाल इसके सेवनसे गुल्म, श्वास और क्षयरोग चन्दनके कल्कसे विधिवत् सिद्ध घृत पीनेसे क्षय, नट होता है। श्वास, खांसी, अजीर्ण और ज्वरका नाश होता है। (१३६६) गुडूच्यादिघृतम्
(प्र० वि०-काथकी ओषधियां समभाग (वृ. नि. र.; च. द.; बं. से. । ज्वरा., वा, भ.। मिश्रित २ सेर । १६ सेर जलमें पकाकर ४ सेर
चि. स्था. अ० १) शेष रक्खें । कल्ककी औषधं समभाग मिश्रित | गुडूच्यारसकल्काभ्यां त्रिफलाया रसेन तु । पावसेर । घी १ सेर।
मृद्वीका वा बलायाश्च सिद्धास्नेहा ज्वरच्छिदः।। ... (मात्रा--१ तोलेसे २ तोले तक अनुपान गिलोय, त्रिफला, मुनक्का और खरैटीमेंसे गर्म दूध ।)
किसी भी ओषधिके कल्क और काथसे सिद्ध घत (१३६४) गुडूच्यादितम् । ज्वरका नाश करता है।
( वा. भ. । चि. स्था. कास.) (१३६७) गुडूच्यादिघृतम् (यो. र.) । गुडूचीकण्टकारीभ्यां पृथक्त्रिंशत्पलादसे। सर्पिगुडूचीकृषकण्टकारी प्रस्थःसिद्धो घृताद्वातकासनुद्वह्निदीपनः॥ काथेन कल्केन च सिद्धमेतत् । ___ गिलोय और कटेलीके ३०-३० पल ग्म पेयं पुराणज्वरकासशूल (काथ) के साथ १ प्रन्थ धूत सिद्ध कर लीजिए। प्लीहाग्निमान्यग्रहणीगदेषु ।
. १ त्रिफलाया वृषस्य चेति पाठभेदः
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