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रसप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
[११३]
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(१५७८) गौरकगुणाः (र.र.स.। पूर्वख. अ.३) (१५८१) गोपीजल: स्वादुस्निग्धं हिमं नेत्र्यं कषायं रक्तपित्तनुत्। (र. रा. सुं., रसें. चि.; र. सा. सं., ध.। गुल्म.) हिध्मावमिविषघ्नं च रक्तध्मं स्वर्णगैरिकम् ॥ जैपालाष्टौ द्विको गन्धं शुण्ठीमरिचचित्रकम् । पाषाणगैरिकं चान्यत्पूर्वस्मादल्पकं गुणैः॥ एकातःससौभाग्यो गोपीजल इति स्मृतः ।।
गेरु दो प्रकारका होता है, (१) स्वर्णगैरिक शुलव्याध्याश्रयान् गुल्मान् कोष्ठादिदशपैत्तिकान् (सोनागेरु) और (२) पाषा गगैरिक । भगन्दरादिहृद्रोगान्नाशयेदेष भक्षणात् ॥
स्वर्ण गैरिक मधुर, स्निग्ध, शीतल, नेत्रोंके शुद्र जमालगोटा ८ भाग, शुद्ध गन्धक लिए हितकारी और कषाय; तथा रक्तपित्त हिचकी, | २ भाग, और सोंठ, मिर्च, चीता, पारा तथा सुहावमन, विष, और रक्तस्राव नाशक है। पाषाण | गेकी खील १-१ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी गैरिक इससे अाप गुणप्रद होता है । कजली बना लीजिए पश्चात् अन्य ओषधियोंका (१५७९) गैरिकभेदाः (र.र. स. प. खं, अ३) चूर्ण मिलाकर खरल कीजिए।
यह गोपीजल शूल, गुल्म, कोष्टरोग, दशपाषाणगैरिकं चैकं द्वितीयं स्वर्णगैरिकम् ।।
| पैत्तिक रोग, भगन्दर, और हृद्रोगादिका नाश पाषाणगैरिकं प्रोक्तं कठिनं ताम्रवर्णकम् ॥
करता है। अत्यन्तशोणितं स्निग्धं मसणं स्वर्णगैरिकम् ॥ (मात्रा १-२ रत्ति ।) गेरु दो प्रकारका होता है (१) पाषाण |
गोमूत्रसिद्धमण्डूरम् (वं. से.; च. द.) गैरिक और (२) स्वर्ण गैरिक।
चूर्ण प्रकरण में देखिए पाषाण गैरिक कठोर (सख्त) और तांबेके (१५८२) गोमेदगुणाः (र. प्र. सु. । अ. ९) रंगका होता है तथा स्वर्ण गैरिक अत्यन्त लाल,
गोमेदकं पित्तहरं प्रदिष्टं स्निग्ध और कोमल तथा चिकना होता है।
पाण्डुक्षयघ्नं कफनाशनश्च । (१५८०) गैरिकशोधनम्
संदीपनं पाचनमेव रुच्य
मत्यन्तबुद्धिप्रविवोधनश्च ॥ (र. र. स. । पूर्व खं. अ. ३)
गोमेद मणि पित्त, पाण्डु, क्षय और कफ गैरिकं तु गवांदुग्धैर्भावितं शुद्विमृच्छति ।
नाशक तथा दीपन पाचन, रोचक और अत्यन्त गैरिकं सत्वरूपं हि नन्दिना परिकीर्तितम् ॥ | बुद्धिवर्द्धक है।
गोदुग्धकी भावना देनेसे ही गेरु शुद्ध हा | (१५८३) गोमेदलक्षणम् (र.प्र.सु. ।अ.७) जाता है।
गोमेदकं रत्नवरं प्रदिष्टं श्री नन्दीका कथन है कि गेरु सत्व रूप | गोमेदवद्रागयुतं प्रवक्षेत । हो होता है (अतएव उसका सत्वपातन नहीं
सुस्वच्छगोमूत्रसमानवर्ण । किया जाता ।)
गोमेदकं शुद्धमिहोच्यते खलु ॥ भा० १५
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