SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir लेहप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः । [४५] होने पर ओषधियोंका चूर्ण मिलाया जा सकता। (मात्रा-६ माशेसे १ तोले तक। अनुपान है। मात्रा १ तोला । अनुपान दृध ।) दृध । तेल, खटाई और गर्म पदार्थों तथा धूप और (१३३९) गुडभल्लातकः (च. द. । अर्शा. ५) अग्नितापादिसे बचना चाहिए।) भल्लातकसहस्से द्वे जलद्रोणे विपाचयेत। (१३४०) गुडादिलेहः (वृ.नि. र. । श्वास.) पादशेषे रसे तस्मिन्पचेद गुडतुलां भिषक ॥ गुडोषणानिशारास्नाद्राक्षामागधिकासमाः । भल्लातकसहस्रार्ध छित्वा तत्रैव दापयेत् ।। तैलेन चूर्णिता लीढास्तीब्रश्वासनुदः स्मृताः।। सिद्धेऽस्मित्रिफलाव्योषयमानीमुस्तसैन्धवम् ॥ गुड़, स्याह मिर्च, हल्दी, रास्ना, मुनक्का, कोशसंमितं दद्यात्वगेलापत्रकेशरम् ।। और पीपल समान भाग लेकर चूर्णकरके तेलमें खादेदमिवलापेक्षी प्रातरुत्थाय मानवः ।। मिलाकर चाटनेसे तीव्र श्वास नष्ट होता है। कुष्ठाशः कामलामेहग्रहणीगुल्मपाण्डुताः।। (प्र. वि.---मात्रा-६ माशेसे १ तोले तक। हन्याप्लीहोदरं कासक्रिमिरोगभगन्दरान् ।। कटु तैलमें मिलाकर प्रातः, दोपहर, सायम् सेवन 'गुडभल्लातको' ह्येष श्रेष्ठश्चाशेविकारिणाम् ।। करें ।) (१३४१) गुडाद्यं मण्डूरम् २ हज़ार (शुद्ध) भिलावोंको १ द्रोण (१६ (र. चं. । उदावर्त., वै. र. । शूल.) सेर) जलमें पकाइये, जब ४ सेर जल शेष रह गुडामलकपथ्यानां चूर्ण प्रत्येकशः पलम् । जाय तो छानकर उसमें १ तुला (१०० पल-६। त्रिपलं लौहकिदृस्य तत्सर्व मधुसर्पिषा ॥ सेर) गुड़ और ५०० शुद्ध भिलावोंकी पिट्ठी मिला समालोडय ततः खादेदक्षमात्राप्रमाणतः । कर पुनः पकाइये । जब अवलेहके समान गाढ़ा आयमध्यावसानेषु भोजनस्य निहन्ति तत ।। हो जाय तो उसमें त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला) अन्नद्रवं जरत्पित्तमम्लपित्तं सुदारुणम् । त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल) अजवायन, मोथा परिणामसमुत्थं च शूलं संवत्सरोत्थितम् ।। सेंधा नमक, दारचीनी, इलायची, तेजपात और गुड़, आमला और हर्रका चूर्ण १-१ पल नागकेसरका १-१ कर्ष (१। तोला) चूर्ण मिला | (५ तोले ) और मण्डूरका चूर्ण ( भस्म ) ३ पल कर सुरक्षित रखिए। लेकर सबको शहद और घीमें मिला लीजिए। इसे प्रातःकाल अग्नि बलानुसार सेवन करनेसे इसे भोजनके आदि मध्य और अन्तमें १ कुष्ट, अर्श, कामला, प्रमेह, ग्रहणी, गुल्म, पाण्डु, अक्ष (१। तोले ) की मात्रानुसार सेवन करनेसे प्लीहोदर, कास, कृमिरोग, और भगन्दरका नाश अन्नद्रव, जरत्पित्त, (शूलभेद), भयङ्कर अम्लपित्त, होता है। और १ वर्षका पुराना परिणाम शूल नष्ट होता है। ... यह " गुडभल्लातक" अर्श विकारको शान्त ( व्यवहारिक मात्रा १ माशा) करनेके लिए अत्यन्त उत्तम है । । (१३४२) गुडाचवलेहः (वृ. नि. र. । श्वास.) For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy