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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[गकारादि
-.
तलवार इत्यादि शस्त्रोंसे उत्पन्न घावमें तुरन्त ही अथवा दशमे मासि वेदना जायते यदा।। गेंगेरनकी जडका स्वरस भर देनेसे वेदना शान्त तदा नीलोत्पलं यष्टीमधुकं मुद्गसंयुतम् ॥
हो जाती है। ससितं चाम्भसा पिटवा क्षीरेणालोड्य पाययेत्। (११५६) गायत्र्यादिकाथ: (भा.प्र.। वि. चि.) दोषश्च नाशयेदेष शूलं गर्भसमुद्भवम् ।। गायत्री त्रिफला निम्बाकटुका मधुकं समम् । __ दशम मासमें गर्भशूल शान्ति के लिए नीलोफर,
त्रिवृत्पटोलमूलाभ्यां चत्वारोंशाः पृथक् पृथक्॥
मनूरान्निस्तुपान्दद्यादेष काथो ब्रणाञ्जयेत । मुलैठी, मूंग और मिश्रीको पानीसे पीस कर दूधमें
विद्रधिगुल्मवीसर्पदाहमोहज्वरा पहः॥ मिलाकर पिलाना चाहिए।
त्रिण्मूच्छच्छिर्दिहृद्रोगपित्तासृक् कुष्ठकामला ॥
- खैरसार, त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला) नीमकी तथा चैकादशे मासि गर्भ भवति वेदना । छाल, कुटकी और मुलहटी प्रत्येक एक एक भाग मधुकं पद्मकञ्चैव मृणालं नीलमुत्पलम् ॥ तथा निसोथ और पटोलको जड़ एवं तुष (छिलके) शीततोयेन पिठ्या तुक्षीरेणालोडय पाययेत् ॥ रहित मसूर चार चार भाग लेकर काथ बनाएं ।
___ एकादश (११ वे) मासमें गर्भशूल शान्तिके यह काथ ब्रण, विद्रधि, गुल्म, विसर्प, दाह, मोह, लिए मुलैठी, पनाक, कमलनाल और नीलोफरको । ज्वर, पिपासा, मूर्छा, वमन, हृद्रोग, रक्तपित्त, कुष्ट शीतल जलसे पीसकर दूधमें मिलाकर पिलाना चाहिए।
(प्र. वि. दूधको मीठा करनेके लिए मिश्री | (११५७) गायत्र्यादि काथः (वृ.नि.र. । ज्व. चि.) मिलाई जा सकती है।) .
गायत्रीत्रिफलानिम्बपटोलीबासकामृता। (११५४) गवाक्षीकल्कः (ब. से.. ग. नि. । उ.रो.) । काथोमधुधृताभ्यांश्च रक्तदोषेति शस्थते ॥ गवाक्षीशविनीदन्तीनीलिनीकल्कसंयुतम् ।।
खैरसार, त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला) नीमकी सर्वोदरविनाशाय गोमूत्रपानमाचरेत् ॥
छाल, पटोलपत्र, बाँसा (अडूसा) और गिलोय के
काथमें शहद और धीका प्रक्षेप देकर पीना रक्त इन्द्राथन, शङ्खपुष्पी, दन्ती और नीलिनी, के
विकारों के लिए अत्यन्त हितकर है। (प्र. वि.-शहद कल्कको गोमूत्रमें मिलाकर पीनेसे सर्व प्रकारके
और घी एक एक तोला मिलाने चाहिएँ और शहद उदरविकार नष्ट होते हैं।
उस समय मिलाना चाहिए कि जब कषाय विल्कुल (११५५) गाङ्गेरुकीस्वरसः
ठण्डा हो जाय ।) (शा. ध. । खं. २ अ. १) (११५८)गिरिकर्णिकामूलयोगः (ग. नि.। ग्रन्ध्य) खड्डादिछिन्नगात्रस्य तत्कालपूरितो ब्रणः। प्रातः पिवेच्छिपां पिष्ट्वा गण्डमालां व्यपोहति । गानेरुकीमूलरसैर्जायते गतवेदनः॥ गिरिकाः सितायास्तु घृतेन परिमिश्रिताम्॥
१ नीलितिल्वकेति पाठभेदः
और कामलाका नाश करता
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