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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४१६ ] भारत-भपज्य-रत्नाकरः [तकारादि (२५८४) ताम्रभस्मविधिः ( ६ ) की राख, सैन्धवनोन इन तीनोंको खूब पीसकर ( रसायनसार; र. प्र. सु. । अ. ४) पानांमें सानकर मुद्रा करदे । पश्चात् उसपर ताम्रस्य तुल्यं तु विशुद्धगन्धं उस कीचड़ में सने हुए कपड़ेसे सात कपडोटी चूर्णीकृतं मृत्स्नितहण्डिकायाम् । करदे, खूब सूख जाने पर रोटी बनाने वाले चूल्हे तले प्रपूर्योपरि शुद्धतानं पर रखकर क्रमसे मन्द मध्यम वो तीन आँच निधाय तस्योपरि तावदेव ।। चार पहर दे । शरावके छिद्रद्वाग धुंआ बराबर गन्धस्य चूर्ण पुनरावपेच्च निकलता रहेगा, यदि तीन पहरमें धुंवा निकलना शरावमस्याश्च मुखे पिदध्यात् । बन्द हो जाय तो भी एक पहर और आँच दे। शरावमध्ये विदधीत रन्ध्र यदि चार पहरमें भी घंआ निकलना बन्द न हो प्रवेशयोग्यं बदरीफलस्थ ॥ तो एक पहर और खूब तेज़ आँच दे । जब स्वांग शीतल ( अपने आप ठण्डा ) हो जाय मृद्भस्मसिन्धूद्भवमुद्रया तत् तब मुद्राको खोलकर हाँडीके तल भागमें जमी पिधानमावेष्टय च सप्तकृत्त्वः । हुई ताम्रभस्मको निकाल ले । इस भस्ममें भी चुल्यां चतुर्याममिदं पचेत वान्ति भ्रान्ति आदि दोष कुछ नहीं है । जिस क्रमेण तापैर्मुदुमध्यतीत्रैः ।। । योगमें ताम्रभस्म डालना लिखा हो उसमें इस स्वाङ्ग शीते च सञ्जाते ताम्रभस्मको निशङ्क डाल सकते हैं। प्रथम जो ___ ताम्रभस्म प्रशस्यते। ताम्रभस्म प्रकार लिखा है उस प्रकारसे नैपाली सर्वयोगेषु धीमद्भि तांमा या तूतियासे निकाला हुआ तामामेसे कोईकी ान्तिभ्रान्तिवियुक्तियुत् ॥ भस्म कर सक्ते हैं और जो ग्रन्थों में ताम्रप्रयोग अर्थ--शुद्ध तूतियाका तामा अथवा नैपाली लिग्वे हैं उन योगोंमें नैपाली तामेकी भस्म अथवा तामा आध सेर और शुद्ध आमला सार गन्धक : तूतिया के तामेकी भस्म दोनोमें से कोईभी ले सकते आधसेर ले । गन्धकको खूब पीसकर तीन कपर हैं ।। ( रसायनसारसे उदृत् ) मिट्टी की हुई चिकनी हांडीमें पावभर गन्धकका । ( नोट---रस प्रकाश सुधाकरमें केवल वर्ण रखकर ऊपर आधसेर ताम्रपत्र रखकर पश्चात ३ पहरकी अग्नि देने के लिये लिखा है और बचे हुवे पावभर गन्धकके चूर्णको रखकर ताम्र- हाण्डीके ढकनमें छिद्र करनेके लिये नहीं लिखा। पत्रको ढाँक दे । उस हांडीके मुखको एक शराव शेष प्रयोग समान है।) ( सिकोरा-ढकना )से ढॉक दे । उस शरावके (२५८५) ताम्रभस्मविधिः (७) (रसायनसार) बीचमें धुंवां निकलनेके लिए इतना बड़ा छिद्र त्रिसेटकोन्मानमितं विशुद्धं कर देना चाहिए कि जिसमें जङ्गली छोटा बेर | तुत्थोत्थतानं दततामुतापि । ( लाल बेर ) समा जाय । हांडीका मुख वो नैपालिकं शास्त्रविधानयोगैः गरावके मध्यमें चिकनी मिट्टी, उपला ( गोयठा) ! ___संशोधितं तैलमुखेषु मस्याम् ॥ For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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