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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - - V/VVVVVVVVVVAVSHNUNN.." रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४१७] निष्पादितायां रसगन्धयोस्तत् __स्वाङ्गे शीतेऽथ सञ्जाते सार्दाधिकायामवधानचेताः। नन्दिकोड़तलं गतः। यन्त्रे द्वयोर्नान्दिकयोः कृते त रससिन्दूर नामा स्यात् स्योर्द्धस्थनान्यां विदधीत रन्ध्रम् ।। ताम्रभस्माप्यधस्तले ॥ छिद्रे वितस्त्यामितलम्बमानां श्यामसुन्दरवैश्येन सम्यगेतत्परीक्षितम् । ददीत नाली रसरोधनाय । विधातव्या न शङ्काऽत्र कर्मसिद्धौ भिषग्वरैः ।। निर्यासतूले ननु लोहभस्म अर्थ- तूतियाका तामां ( उक्तविधिसे शुद्ध __ . मृत्सामिति द्रव्यचतुष्टयश्च । किया हुआ ) अथवा तैलादि वर्गमें शुद्ध किया पानीय योगेन दिनद्वयं ज्ञः हुआ नैपालिक तामां तीन सेर ले । और डेढ कुट्टेत्तथा क्ष्लाक्ष्ण्यमियाद्यथा तत् । सेर शुद्ध पारा वो तीन सेर शुद्ध गन्धककी कजली अस्यैव कल्कस्य ददीत मुद्रां बनाले । फिर दो नाँदोंके ऊपर सात सात कपरनान्दीमुखे नालिमुखे च धीमान् ।। | मिट्टी करले । दोनों नाँदोंका मुख मिलाकर देखले सर्वार्थकाः खलु कोष्ठिकाया कि कहीं छिद्र न रह जाय; फिर ऊपरवाली नाँदके पेंदेमें इतना बड़ा छिद्र करदे कि जिसमें विशालचुल्ल्यां निदधीत यन्त्रम् । अंगुली जा सके उस छिद्रमें एक बिलांद लम्बी ताम्रस्य पत्रश्च मसीक्रमेण एक लोहेकी नली लगादे जो नाँदके अन्दर लट___ संस्थापिते यत्र ददीत वह्निम् ॥ कती रहे। इस नलीके लगानेका यह अभिप्राय है होरात्रयं मन्दमथ क्रमेण कि नाँदके पेंदेमें किए हुए छिद्रके द्वारा पारा मध्योत्तमौ चापि तथा विदध्यात् । बाहर न निकल जाय, किन्तु सिन्दूर रस बनकर यथोग्रवः परिताप एनद् नलीकी चारों तरफ नांदके पेंदेमें लगे । निचली न स्फोटयेनेत्रदिने ततोऽथ ॥ नांदमें पारद गन्धककी थोड़ीसी कजली रख कर पुनः पुनर्लोहशलाकयापि थोडासा ताम्रपत्र रखे फिर कज्जली रखकर थोडासा पश्यन् यदाऽवैति च जीर्णगन्धम् । ताम्रपत्र और रखे, फिर कजली दे पुनः ताम्रपत्र उत्तार्य चुल्ल्यां निदधीत यन्त्र रखे इस प्रकार क्रमसे साढ़े चार सेरऽ ४॥ कज्जली या प्रस्तरेङ्गालवती च कोष्ठी ॥ वो ३ सेर ताम्रपत्रोंको रखे और कज्जलीको हाथसे तस्याश्च गन्धस्य विपाचनाय खूब दबा दे । बाद उस नांदके ऊपर नली ताम्रस्य सम्यक् परिपाकहेतोः। .. लगाई हुई, दूसरी नांदको रख कर इन चीजोंके नालीं विहायोन्दपटेन नान्दी कल्ककी मुद्रा लगावे, पीपलका गोंद, रुई, लोहभस्म सम्यक् पिदध्यात्पुनरुन्दयेत । । (मुद्रा देनेको कान्तिसार या तीक्ष्ण लोहकी भस्मकी भा० ५३ For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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